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________________ अष्टम अध्याय ६३७ जीवहेहममत्वस्य जीवत्याशाप्यनाशुषः जीवदाशस्य सद्ध्यानवैधुर्यात्तत्पदं कुतः ॥१२४॥ अप्यनाशुषः-अनशनव्रतस्यापि ॥१२४।। अथातीचारविशुद्धय क्रियाविशेषसिद्धय वा यथोक्तकालं कायोत्सर्ग कृत्वा परतोऽपि शक्त्या तत्करणे न दोषः स्यात् । किं तर्हि । गुण एव भवेदित्युपदेशार्थमाह हृत्वाऽपि दोषं कृत्वाऽपि कृत्यं तिष्ठेत् तनूत्सृतौ । कर्मनिर्जरणाद्ययं तपोवृद्धयै च शक्तितः॥१२५॥ स्पष्टम् ॥१२५॥ अथ त्रियोगशुद्ध कृतिकर्मण्यधिकारिणं लक्षयति यत्र स्वान्तमुपास्य रूपरसिकं पूतं च योग्यासना ___धप्रत्युक्तगुरुक्रमं वपुरनुज्येष्ठोद्धपाठं वचः। तत् कर्तु कृतिकर्म सज्जतु जिनोपास्त्योत्सुकस्तात्विकः कर्मज्ञानसमुच्चयव्यवसितः सर्वसहो निःस्पृहः ॥१२६॥ उपास्याः-आराध्याः सिद्धादयः । पूतम् । एतेन त्रयमपि विशेष्टव्यम् । गुरुक्रमः-दीक्षां ज्येष्ठानां पुराक्रियां कुर्वतामानुपूर्व्यम् । योग्यासनादिभिरप्रयुक्तोऽनिराकृतोऽसो येन तत्तथोक्तम् । अनुज्येष्ठौद्घपाठं- १५ ज्येष्ठानुक्रमेण प्रशस्तोच्चारणम् । उत्सूक:-सोत्कण्ठाभिलाषः । उक्तं च जिसका शरीरके प्रति ममत्वभाव वर्तमान है अतएव जिसकी इहलोक सम्बन्धी आशाएँ भी जीवित हैं, वह यदि अनशन व्रत भी करे तो उसे मोक्ष पद कैसे मिल सकता है क्योंकि उसके धर्मध्यान और शुक्लध्यानका अभाव है ॥१२४॥ विशेषार्थ-सच्चा मुमुक्षु वही है जो संसार शरीर और भोगोंसे विरक्त होता है । घर-बार छोड़कर साधुबन जानेपर भी यदि शरीरके प्रति आसक्ति है तो उसकी सांसारिक अभिलाषाएँ। मिटी नहीं हैं। ऐसी अवस्थामें उसका अनशन केवल कायक्लेश है। ऐसे व्यक्तिके धर्मध्यान सम्भव नहीं है तब उसे मोक्षकी प्राप्ति कैसे हो सकती है ? ॥१२४॥ आगे कहते हैं कि दोषोंकी विशुद्धिके लिए और क्रिया विशेषकी सिद्धिके लिए कायोत्सर्गका जितना काल कहा है उतने काल तक कायोत्सर्ग करनेके बाद भी यदि कायोत्सर्ग करता है तो उसमें कोई दोष नहीं है, बल्कि लाभ ही है दोषों को दूर करनेके लिए और आवश्यक कृत्यके लिए कायोत्सर्ग करनेके बाद भी कोंकी निर्जरा तथा संवरके लिए और तपकी वृद्धिके लिए शक्तिके अनुसार कायोत्सर्ग करना चाहिए ॥१२५॥ आगे मन-वचन-कायसे शुद्ध कृतिकर्मके अधिकारीका लक्षण कहते हैं जिस कृतिकर्म में मन आराधनीय सिद्ध आदिके स्वरूप में अतिशय अनुरागी होनेके साथ बिशुद्ध भावोंसे युक्त होता है, शरीर बाह्य शुद्धिके साथ गुरुजनोंके द्वाराकी जानेवाली पुरःक्रियाके क्रमका उल्लंघन न करके अपने योग्य आसन स्थान आदिको लिये हुए होता है, तथा वचन वर्ण पद आदिकी शुद्धिको लिये हुए होनेके साथ ज्येष्ठ जनोंके अनुक्रमसे प्रशस्त उच्चारणसे युक्त होता है, उस कृतिकर्मको करनेके लिए वही समर्थ होता है जो अर्हन्तकी उपासनाके लिए उत्सुक हो, परमार्थको समझता हो, शास्त्रोक्त क्रिया और आत्मज्ञान दोनोंमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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