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________________ ६३६ धर्मामृत ( अनगार ) उत्थितस्य-उद्धीभूतस्य । अन्येत्यादि । उपविष्टस्योत्थितस्य चार्तरोद्रचिन्तनलक्षणादानादुपविष्टोपविष्टा च उत्थितोपविष्टा च द्वयी तनत्सतिरनिष्टानिष्टफलत्वादित्यर्थः । उक्तं च 'त्यागो देहममत्वस्य तनूत्सृतिरुदाहृता । उपविष्टोपविष्टादिविभेदेन चतुर्विधा ।। आर्तरौद्रद्वयं यस्यामुपविष्टेन चिन्त्यते । उपविष्टोपविष्टाख्या कथ्यते सा तनूत्सृतिः ।। धर्म्यशुक्लद्वयं यस्यामुपविष्टेन चिन्त्यते। उपविष्टोत्थितां सन्तस्तां वदन्ति तनूत्सृतिम् ॥ आर्तरौद्रद्वयं यस्यामुत्थितेन विधीयते । तामुत्थितोपविष्टाख्यां निगदन्ति महाधियः ।। धयंशुक्लद्वयं यस्यामुत्थितेन विधीयते । उत्थितोत्थितनामानं तां भाषन्ते विपश्चितः ।।' [ अमि. श्रा. ८.५७-६१ ] ॥१२३।। अथ कायममत्वापरित्यागिनोऽनशनव्रतस्यापि मुमुक्षोः स्वेप्टसिद्धिप्रतिबन्धं दर्शयतिकायोत्सर्ग करनेवाला यदि बैठकर दुर्ध्यान करता है तो उसे उपविष्टोपविष्ट और खड़े होकर दुर्ध्यान करता है तो उसे उत्थितोपविष्ट कहते हैं ॥१२३॥ विशेषार्थ-यहाँ शुभ और अशुभ ध्यानको लेकर कायोत्सर्गके चार भेद किये हैंउत्थितोत्थित, उपविष्टोत्थित, उत्थितोपविष्ट और उपविष्टोपविष्ट। इन चारोंका स्वरूप मूलाचारमें इस प्रकार कहा है-'जो खड़े होकर धर्मध्यान और शुक्लध्यानको ध्याता है उसके इस कायोत्सर्गको उत्थितोत्थित कहते हैं। उत्थितका अर्थ है खड़ा हुआ। ऐसा सम्यग्ध्यानी बाह्य रूपसे तो खड़ा ही है अन्तरंग रूपसे भी खड़ा है अतः उत्थितोत्थित है। जो खड़े होकर आते और रौद्रध्यानको ध्याता है उसके कायोत्सर्गको उत्थितोपविष्ट कहते हैं क्योंकि यद्यपि वह बाह्य रूपसे खड़ा है किन्तु अन्तरंगसे तो बैठा हुआ ही है। जो बैठकर धर्मध्यान या शुक्लध्यानको ध्याता है उसके कायोत्सर्गको उपविष्टोस्थित कहते हैं क्योंकि यद्यपि वह बाह्य रूपसे बैठा है किन्तु अन्तरंगसे खड़ा ही है। जो बैठकर आर्त-रौद्रध्यानको ध्याता है उसके कायोत्सर्गको उपविष्टोपविष्ट कहते हैं क्योंकि वह अन्तरंग और बाह्य दोनों हीसे बैठा है' ॥१२३॥ ____ आगे कहते हैं कि शरीरसे ममत्व त्यागे बिना उपवास करनेपर भी इष्ट सिद्धि. नहीं होती १. 'धम्म सुक्कं च दुवे ज्झायदि झाणाणि जो ठिदो संतो। एसो काओसग्गो इह उद्विदउट्टिदो णाम ॥ अटुं रुदं च दुवे झायदि झाणाणि जो ठिदो संतो। एसो काओसग्गो उद्विदणिविट्टिदो णाम ।। धम्म सुक्कं च दुवे झायदि झाणाणि जो णिसण्णो दु । एसो काओसग्गो उवट्टिद उढिदो णाम ॥ अट्ट रुदं च दुवे झायदि झाणाणि जो णिसण्णो दु । एसो काओसग्गो णिसण्णिदणिसण्णिदो णाम ।।'-मूलाचार-७।१७७-१८० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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