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________________ ६३५ अष्टम अध्याय व्याक्षेपासक्तचित्तत्वं कालापेक्षाव्यतिक्रमः। लोभाकुलत्वं मूढत्वं पापकर्मैकसर्गता ॥१२॥ योज्येति यत्नाद् द्वात्रिंशद्दोषमुक्ता तनूत्सृतिः । सा हि मुक्त्यङ्गसद्ध्यानशुद्धय शुद्धैव संमता ॥१२२॥ घोटकाख्यः । चलतः-कम्पमानस्य ॥११२॥ स्तम्भादि । आदिशब्देन कुड्यादि ॥११३॥ शबरी। दोषनामेदम् ॥११४॥ उन्नमः-उन्नमनम् । इन्नन्तादल । स्तनदावत्-शिशोः स्तनदायिन्याः स्त्रिया यथा ६ ॥११५॥ दन्तघृष्ट्या -दन्तकटकटायनेन सह ॥११६॥ युगार्तगववत्-स्कन्धारूढयुगस्य बलीवर्दस्य यथा ॥११७।। अ । दोषनामेदम् ॥११८॥ अप्यधः--अधस्तादपि ग्रीवाया नयनम् । एतौ ग्रीवोवनयनं ग्रीवाधोनयनं चेति द्वौ दोषौ ॥११९॥ निष्ठीवनमित्यादि । अत्र उत्तरत्र च संज्ञा एव लक्षणानि स्पष्टत्वात् १ ॥१२०॥ मूढत्वं-कृत्याकृत्याविवेचकत्वम् । एकसर्गः-उत्कृष्टोत्साहः ॥१२१।। शुद्धैव । उक्तं च 'सदोषा न फलं दत्ते निर्दोषायास्तनूत्सृतेः। कि कूटं कुरुते कार्य स्वर्ण सत्यस्य जातुचित् ॥' [ ] ॥१२२॥ अथोत्थितोत्थितादिभेदभिन्नायाश्चतुर्विधायास्तनूत्सृतेरिष्टानिष्टफलत्वं लक्षयति सा च द्वयोष्टा सध्यानादुस्थितस्योत्थितोत्थिता। उपविष्टोत्थिता चोपविष्टस्यान्यान्यथा द्वयी ॥१२३॥ चित्तका इधर-उधर होना अट्ठाईसवाँ दोष है। समयकी अपेक्षासे कायोत्सर्गके विविध अंशों में कमी करना उनतीसवाँ दोष है। कायोत्सर्ग करते समय लोभवश आकुल होना तीसवाँ दोष है । कृत्य-अकृत्यका विचार न करना मूढ़ता नामक इकतीसवाँ दोष है । पापके कार्योंमें उत्कृष्ट उत्साह होना बत्तीसवाँ दोष है ॥१२१॥ विशेषार्थ-मूलाचारमें कायोत्सर्गके दोषोंकी संख्या कण्ठोक्त नहीं बतलायी है । दसों दिशाओंके अवलोकनको दस दोषोंमें लेनेसे संख्या यद्यपि पूरी हो जाती है। अमितगति श्रावकाचार (८1८८-९८) में उनकी संख्या बत्तीस गिनायी है। अन्तके कुछ दोष प्रन्थकारने श्रावकाचारके अनुसार कहे हैं। मूलाचारमें तो उनके सम्बन्धमें कहा है-धीर पुरुष दुःखोंके विनाशके लिए कपटरहित, विशेषसहित, अपनी शक्ति और अवस्थाके अनुरूप कायोत्सर्ग करते हैं ॥१२१॥ - इस प्रकार मुमुक्षुको प्रयत्नपूर्वक बत्तीस दोषोंसे रहित कायोत्सर्ग करना चाहिए । क्योंकि मुक्तिके कारण धर्मध्यान और शुक्लध्यानकी सिद्धिके लिए शुद्ध कायोत्सर्ग ही आचार्योंको मान्य है ॥१२२।।। कायोत्सर्गके उत्थितोत्थित आदि चार भेद हैं, उनके इष्ट और अनिष्ट फलको बतलाते हैं धर्मध्यान और शुक्लध्यानको लेकर कायोत्सर्गके दो भेद आचार्योंको मान्य हैं। खड़े होकर ध्यान करनेवालेके कायोत्सर्गको उत्थितोस्थित कहते हैं और बैठकर ध्यान करनेवालेके कायोत्सर्गको उपविष्टोत्थित कहते हैं। इसके विपरीत आर्त-रौद्रध्यानको लेकर १. "णिवकूडं सविसेसं वलाणुरूवं वयाणुरूवं च । काओसग्गं धीरा करंति दुक्खक्खयट्ठाए ॥'-(७-१७४) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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