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अथ चतुश्चत्वारिंशता पद्यनित्यक्रियाप्रयोग विधौ मुनिमुद्यमयन्नाह - शुद्धस्वात्मोपलम्भाग्रसाधनाय समाधये । परिकर्म मुनिः कुर्यात् स्वाध्यायादिकमन्वहम् ॥ १ ॥ परिकर्म - योग्यतोत्पादनाय प्राग्विधेयमनुष्ठानम् ॥१॥ अथ स्वाध्यायप्रतिष्ठापन निष्ठापनयोविधिमुपदिशति - स्वाध्यायं लघुभक्त्यात्तं श्रुतसूर्योरहनिशे ।
पूर्वेऽपरेऽपि चाराध्य श्रुतस्यैव क्षमापयेत् ॥२॥
लघुभक्त्या – लघ्वी अञ्चलिकामात्र पाठरूपा भक्तिर्वन्दना । सा च श्रुतस्य यथा - ' - 'अहंद्वक्तृप्रसूतम्' ९ इत्यादिका । एवमाचार्यादीनामपि यथाव्यवहारमसाववसेया । आत्तं - गृहीतं प्रतिष्ठापितमित्यर्थः । अहर्निशेदिने रात्रौ च । पूर्वेऽपरेऽपि - पूर्वापरा पूर्वरात्रेऽपररात्रे चेत्यर्थः । एतेन गोसर्गिकापराह्निकप्रादोषिकवैरात्रिकाश्चत्वारः स्वाध्याया इत्युक्तं स्यात् । यथाह
'एकः प्रादोषिको रात्री द्वौ च गोसर्गिकस्तथा । स्वाध्यायाः साधुभिः सार्द्ध: कर्तव्याः सन्त्यतन्द्रितैः ।' [
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नवम अध्याय
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आगे चवालीस श्लोकोंके द्वारा मुनियोंको नित्य क्रियाके पालनकी विधिमें उत्साहित करते हैं
निर्मल निज चिद्रूपकी प्राप्तिका प्रधान कारण समाधि है । उस समाधिके लिए योग्यता प्राप्त करनेको मुनिको प्रतिदिन स्वाध्याय आदि करना चाहिए || १ ||
विशेषार्थ - संसारका परित्याग करके मुनिपद धारण करनेका एकमात्र उद्देश शुद्ध स्वात्माकी उपलब्धि है उसे ही मोक्ष कहते हैं । कहा भी है- 'सिद्धिः स्वात्मोपलब्धिः । किन्तु उस निर्मल चिद्रपकी प्राप्तिका प्रधान कारण है समाधि । समाधि कहते हैं आत्मस्वरूपमें अपनी चित्तवृत्तिका निरोध । उसे योग और ध्यान भी कहते हैं । सब ओरसे मनको. हटाकर स्वरूपमें लगाये विना सच्चा ध्यान सम्भव नहीं है और उसके बिना स्वरूपकी प्राप्ति सम्भव नहीं है । किन्तु वैसा ध्यान अभ्यास से ही सम्भव है । उस प्रकारका ध्यान करनेकीं योग्यता लाने के लिए पहले कुछ आवश्यक कार्य करने होते हैं । उन्हींको कहते हैं ||१||
सबसे प्रथम स्वाध्यायके प्रारम्भ और समापनकी विधि कहते हैं
स्वाध्यायका प्रारम्भ दिन और रात्रिके पूर्वभाग और अपरभागमें लघु श्रुत भक्ति और लघु आचार्य भक्तिका पाठ करके करना चाहिए। और विधिपूर्वक करके लघु श्रुत भक्तिपूर्वक समाप्त करना चाहिए ||२||
१. भिः सर्वे क - भ. कु. च ।
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