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________________ अष्टम अध्याय अथाचार्यशिष्ययोः शेषयतीनां च वन्दनाप्रतिवन्दनयोविभागनिर्णयार्थमाह सर्वत्रापि क्रियारम्भे वन्दनाप्रतिवन्दने । गुरुशिष्यस्य साधूनां तथा मार्गाविवर्शने ॥५५॥ गुरुशिष्यस्य-गुरुश्च शिष्यश्चेति समाहारः । मार्गादि-आदिशब्दान्मलोत्सर्गोत्तरकालं कायोत्सर्गानन्तरदर्शनेऽपि ॥५५॥ अथ सामायिकादित्रयस्य व्यवहारानुसारेण प्रयोगविधि दर्शयति __सामायिकं णमो अरहंताणमिति प्रभृत्यथ स्तवनम् । . थोसामोत्यादि जयति भगवानित्यादिवन्दनां युञ्ज्यात् ॥१६॥ जयति भगवानित्यादि । अत्रक आदिशब्दो लुप्तनिर्दिष्टो द्रष्टव्यः । तेन अर्हत्सिद्धादिवन्दना गृह्यते ९ ॥५६॥ अथ प्रतिक्रमणस्य लक्षणविकल्पनिर्णयार्थमाह____ आगे आचार्य और शिष्यमें तथा शेष संयमियोंमें वन्दना और प्रतिवन्दनाका निर्णय करते हैं सभी नित्य और नैमित्तिक कृतिकर्मके प्रारम्भमें शिष्यको आचार्यकी वन्दना करनी चाहिए और उसके उत्तरमें आचार्यको शिष्यकी वन्दना करनी चाहिए। इसके सिवाय मार्गमें अन्य यतियोंको देखनेपर परस्परमें वन्दना-प्रतिवन्दना करनी चाहिए। आदि शब्दसे मलत्यागके पश्चात् तथा कायोत्सर्गके पश्चात् यतियोंको देखनेपर परस्परमें वन्दना-प्रतिवन्दना करनी चाहिए ॥५५॥ _ विशेषार्थ-मूलाचार (७।१०२) में कहा है कि आलोचना करते समय, छह आवश्यक करते समय, प्रश्न करते समय, पूजा करते समय, स्वाध्याय करते समय और क्रोध आदि अपराध होनेपर आचार्य आदिकी वन्दना करनी चाहिए ॥५५॥ सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव और वन्दनाका वर्णन करने के पश्चात् व्यवहारके अनुसार इन तीनोंकी प्रयोग विधि बतलाते हैं संयमी साधुओंको और देशसंयमी श्रावकोंको ‘णमो अरहताण' इत्यादि सामायिक. दण्डकपूर्वक प्रथम सामायिक करना चाहिए। उसके पश्चात् 'थोस्सामि' इत्यादि स्तवदण्डक पूर्वक चतुर्विशतिस्तव करना चाहिए। उसके पश्चात् 'जयति भगवान्' इत्यादि चैत्यभक्तिपूर्वक वन्दना करनी चाहिए ॥५६॥ विशेषार्थ-दशभक्ति नामक शास्त्रके प्रारम्भमें सामायिक दण्डक दिया है। इसमें णमोकार मन्त्र चत्तारि मंगल आदि दण्डक देकर कृतिकर्म करनेकी प्रतिज्ञा आदि है। इस सबका भाव सहित पढ़कर सामायिक करना चाहिए । इसके पश्चात् 'थोस्सामि है जिणवरे इत्यादि स्तुति तीर्थंकरोंकी है इस दण्डकको पढ़कर चतुर्विंशतिस्तव करना चाहिए। चैत्यभक्तिके प्रारम्भमें 'जयति भगवान्' इत्यादि चैत्यभक्ति है इसे पढ़कर वन्दना करनी चाहिए। यह इनकी विधि है। आदि शब्दसे अर्हन्त, सिद्ध आदिकी भी वन्दना की जाती है ॥५६।। आगे चतुर्थ आवश्यक प्रतिक्रमणके भेद और लक्षण कहते हैं १. योविषयवि-भ. कु.च.। ७५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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