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धर्मामृत ( अनगार) .. अथ संयतेऽपि वन्दनाविधिनियमार्थमाह
वन्द्यो यतोऽप्यनुज्ञाप्य काले साध्वासितो न तु ।
व्याक्षेपाहारनीहारप्रमादविमुखत्वयुक ॥५३॥ अनुज्ञाप्य-भगवन् वन्देऽहमिति विज्ञापनया वन्दस्वेत्यनुज्ञा कारयित्वा इत्यर्थः। साध्वासितःसम्यगुपविष्टः । उक्तं च
'आसने शासनस्थं च शान्तचित्तमपस्थितम ।
अनुज्ञाप्येव मेधावी कृतिकर्म निवर्तयेत् ॥' [ नेत्यादि । उक्तं च
'व्याक्षिप्तं च पराचीनं मा वन्दिष्ठाः प्रमादिनम् ।
कुर्वन्तं सन्तमाहारं नीहारं चापि संयतम् ॥' [ ] ॥५३॥ अथ काल इति व्याचष्टे
वन्द्या दिनादौ गुर्वाधा विधिवद्विहितक्रियैः ।
। मध्याह्न स्तुतदेवैश्च सायं कृतप्रतिक्रमैः ॥५४॥
विहितक्रियैः-कृतप्राभातिकानुष्ठानैः । स्तुतदेवश्च, चशब्दोऽत्र नैमित्तिकक्रियानन्तरं विधिवन्दना१५ समुच्चयार्थः ॥५४॥
उसकी वन्दना न करे । अन्य भी कोई अपना उपकारी यदि असंयमी हो तो उसकी वन्दना न करे । तथा पाश्र्वस्थ आदि पाँच भ्रष्ट मुनियोंकी वन्दना न करें। पं. आशाधरजीने मूलाचारके इस कथनको श्रावक पर लगाया है क्योंकि उन्होंने शायद सोचा होगा मुनि तो ऐसा करेगा नहीं। श्रावक ही कर सकता है ॥५२॥
आगे संयमियोंकी भी वन्दनाकी विधिके नियम बताते हैं
संयमी साधुको संयमी साधुकी वन्दना भी वन्दनाके योग्य कालमें जब वन्दनीय साधु अच्छी तरह से बैठे हुए हों, उनकी अनुज्ञा लेकर, करना चाहिए। यदि वन्दनीय साधु किसी व्याकुलतामें हों, या भोजन करते हों, या मल-मूत्र त्याग करते हों, या असावधान हों या अपनी ओर उन्मुख न हों तो वन्दना नहीं करनी चाहिए ॥५३॥
विशेषार्थ-वन्दना उचित समय पर ही करनी चाहिए। साथ ही जिन साधुकी वन्दना करनी हो उनको सूचित करके कि भगवन् ! मैं वन्दना करता हूँ, उनकी अनुज्ञा मिलने पर वन्दना करनी चाहिए। कहा है-जब वन्दनीय साधु एकान्त प्रदेशमें पयंक आदि आसव-, से बैठे हों, उनका चित्त स्वस्थ हो तब वन्दना करनी चाहिए। तथा वन्दना करनेसे पहले उनसे निवेदन करना चाहिए कि मैं आपकी वन्दना करना चाहता हूँ। यदि वे कार्य व्यग्र हों, उनका ध्यान उस ओर न हो तो ऐसी अवस्थामें वन्दना नहीं करनी चाहिए। कहा है'जब उनका चित्त ध्यान आदिमें लगा हो, या वह उधरसे मुँह मोड़े हुए हों, प्रमादसे ग्रस्त हों, आहार करते हों या मलमूत्र त्यागते हों तो ऐसी अवस्थामें वन्दना नहीं करनी चाहिए॥५३॥
आगे वन्दनाका काल कहते हैं
प्रातःकालमें प्रातःकालीन अनुष्ठान करनेके पश्चात् , क्रियाकाण्डमें कहे हुए विधानके अनुसार, आचार्य आदिकी वन्दना करनी चाहिए। मध्याह्नमें देव वन्दनाके प करनी चाहिए। और सन्ध्याके समय प्रतिक्रमण करके वन्दना करनी चाहिए । 'च' शब्दसे प्रत्येक नैमित्तिक क्रियाके अनन्तर वन्दना करनी चाहिए ॥५४।।
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