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________________ १२ अष्टम अध्याय सूरिः-सारणवारणकारो । प्रवर्ती-प्रवर्तकः । गणी-गणरक्षको राजसभीविदितः । स्थविर:मर्यादाकारकः । रात्निकः-रत्नत्रयाधिकः । अमान:-अगर्वः ॥५०॥ अथ विधिवन्दनाया विप्रकर्षवशाद् विषयविभागार्थमाह गुरौ दूरे प्रवर्ताद्या वन्द्या दूरेषु तेष्वपि । संयतः संयतैर्वन्द्यो विधिना दीक्षया गुरुः ॥५१॥ गुरो-आचायें । दूरे-देशाद्यन्तरिते । गुरुः-ज्येष्ठः ॥५१॥ अथ सागारेतरयत्योरवन्दनीयान्निदिशति श्रावकेणापि पितरौ गुरू राजाऽप्यसंयताः। कुलिङ्गिनः कुदेवाश्च न वन्द्याः सोऽपि संयतैः ॥५२॥ श्रावकेणापि-यथोक्तानुष्ठाननिष्ठेन सागारेणापि किं पुनरनगारेणेत्यपि शब्दार्थः । गुरू-दीक्षागुरुः शिक्षागुरुश्च । कुलिङ्गिनः-तापसादयः पार्श्वस्थादयश्च । कुदेवाः-रुद्रादयः शासनदेवतादयश्च । सोऽपिशास्त्रोपदेशोदिकारी श्रावकोऽपि ॥५२॥ मुनिजन शास्त्राध्ययन करते हैं उन्हें उपाध्याय कहते हैं। गणके रक्षक साधुको गणी कहते हैं । मर्यादाके कारक साधुओंको स्थविर कहते हैं। इन सभीकी वन्दना साधुओंको करना चाहिए ॥५०॥ आगे आचार्य आदिके दूर रहनेपर वन्दनाके विषयविभागको बतलाते हैं यदि आचार्य देशान्तरमें हों तो मुनियोंको कर्मकाण्डमें कही गयी विधिके अनुसार प्रवर्तक आदिकी वन्दना करनी चाहिए। यदि वे भी दूर हों तो मुनियोंको जो अपनेसे दीक्षामें ज्येष्ठ मुनि हों, उनकी वन्दना करनी चाहिए ॥५१॥ देश संयमी श्रावकों और मुनियोंको जिनकी वन्दना नहीं करनी चाहिए उनका निर्देश करते हैं मुनिकी तो बात ही क्या, यथोक्त अनुष्ठान करते हुए श्रावकको भी माता-पिता, शिक्षागुरु, दीक्षा-गुरु और राजा यदि असंयमी हों तो उनकी वन्दना नहीं करनी चाहिए। तथा तापस आदि और पाश्र्वस्थ आदि कुलिगियोंकी व रुद्र आदि और शासन देवता आदि कुदेवोंकी भी वन्दना नहीं करनी चाहिए। और श्रावक यदि शास्त्रोपदेशका अधिकारी भी हो तो भी उसकी वन्दना मुनिको नहीं करनी चाहिए ।।५२।। विशेषार्थ-मूलाचारमें श्रावकके लिए इनकी वन्दनाके निषेधका कथन नहीं है। उसमें केवल मुनिके द्वारा जो अवन्दनीय हैं उन्हींका निर्देश है । यथा-टीकाकार आचार्य वसुनन्दीने उसका अर्थ इस प्रकार किया है-मुनि होकर मोहवश असंयमी माता-पिता वा अन्य किसीकी स्तुति नहीं करनी चाहिए । भय या लोभसे राजाकी स्तुति न करें। ग्रह आदि की पीड़ाके भयसे सूर्य, चन्द्र, नाग, यक्ष आदिको न पूजे। शास्त्र आदिके लोभसे अन्य धर्मियोंकी स्तुति न करे । आहार आदिके निमित्त श्रावककी स्तुति न करे। या श्रावक शास्त्र आदिका पण्डित हो तो भी उसकी वन्दना न करे । अपना गुरु भी यदि भ्रष्ट हो गया हो तो १. -भादिवि-भ. कु. च.। २. देशाधिका-भ. कु. च. । ३. 'णो वंदेज्ज अविरदं मादा पिदु गुरु णरिदं अण्णतित्थं व्व । देशविरद देवं वा विरदो पासत्थ पणगं च ॥'-मूलाचार, ७.९५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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