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धर्मामृत (अनगार )
कामतन्त्रे भये चैव ह्येवं विनय इष्यते ।
विनयः पञ्चमो यस्तु तस्यैषा स्यात्प्ररूपणा ॥' [
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अन्त्यः - मोक्षविनयः । स च दर्शनादिभेदात् पञ्चधा प्राक् प्रपञ्चितः ॥४८॥ अथ नामादिनिक्षेपभेदात् षोढा वन्दनां निर्दिशन्नाहनामोच्चारणमर्चाङ्गकल्याणावन्यनेहसाम् ।
गुणस्य च स्तवाश्चैकगुरोर्नामादिवन्दना ॥ ४९ ॥ अर्चा-प्रतिमा | कल्याणावन्यनेहसी – गर्भादिकल्याणानां भूमिः कालश्च ॥४९॥ अथावान्तरवन्द्यान् वन्दारुं च निर्दिशति -
सूरि-प्रवर्युपाध्याय - गणि स्थविर - रात्निकान् ।
यथाहं वन्दतेऽमानः संविग्नोऽनलसो यतिः ॥५०॥
विशेषार्थ - मूलाचार में (७/८३-८६) विनयके पाँच भेद बताकर उनका स्वरूप इस प्रकार कहा है-किसीके आनेपर अपने आसन से उठकर दोनों हाथ जोड़ना, अतिथिको आसन देना, उसका सत्कार करना, मध्याह्नकालमें साधुके या अन्य किसी धार्मिकके आनेपर उसका बहुमान करना, अपने विभव के अनुसार देवपूजा करना ये सब लोकानुवृत्ति नामक विनय है । अतिथिके मनके अनुकूल बोलना, उसके अनुकूल आचरण करना, देश-काल के योग्य दान देना यह सब भी लोकानुवृत्ति विनय है, लोगोंको अपने अनुकूल करने के लिए की जाती है। इसी तरह अर्थके लिए जो विनय की जाती है वह अर्थहेतु विनय है । जैसे पैसे के लिए धनीकी खुशामद करना । कामशास्त्र में जो स्त्रीको अपने अनुकूल करनेके लिए विनय कही है वह कामहेतुक विनय है। किसी भयसे जो विनय की जाती है वह भयहेतुक विनय है । और पहले जो दर्शन विनय आदि पाँच प्रकारकी विनय कही है वह मोक्षहेतुक विनय है । मुमुक्षुको वह विनय अवश्य पालना चाहिए उसके बिना कर्मोंकी निर्जरा नहीं हो सकती ||४८||
आगे नाम आदि निक्षेपके भेदसे छह प्रकारकी वन्दना कहते हैं
वन्दना के नामादि निक्षेपोंकी अपेक्षा छह भेद हैं- नामवन्दना, स्थापनावन्दना, द्रव्यवन्दना, कालवन्दना, क्षेत्रवन्दना और भाववन्दना । अर्हन्त आदिमें से किसी भी एक पूज्य पुरुषका नाम उच्चारण अथवा स्तवन आदि नामवन्दना है । जिनप्रतिमाका स्तवन स्थापनावन्दना है । जिन भगवान् के शरीरका स्तवन द्रव्यवन्दना है। जिस भूमिमें, कोई कल्याणक हुआ हो, उस भूमिका स्तवन क्षेत्रवन्दना है । जिस कालमें कोई कल्याणक हुआ हो उस कालका स्तवन कालवन्दना है । और भगवान्के गुणोंका स्तवन भाववन्दना है ॥४९॥
आगे अन्य वन्दनीय पुरुषोंको बतलाकर वन्दना करनेवाले साधुका स्वरूप बतलाते हैं
संसारसे भयभीत, निरालसी श्रमण आचार्य, प्रवर्तक, उपाध्याय, गणी, स्थविर तथा रत्नत्रयके विशेष रूपसे आराधकोंकी मानरहित होकर यथायोग्य वन्दना करता है ॥५०॥
विशेषार्थ- जो संघका पोषक, रक्षण और अनुग्रह तथा निग्रह करते हैं वे आचार्य कहे जाते हैं । जो आचार आदिमें प्रवृत्ति कराते हैं उन्हें प्रवर्तक कहते हैं । जिनके पास
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