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________________ ३ धर्मामृत (अनगार) अहनिशापक्षचतुर्मासाब्देर्योत्तमार्थभूः । प्रतिक्रमस्त्रिधा ध्वंसो नामाद्यालम्बनागसः ॥१७॥ अहरित्यादि । अहः, संवत्सरः, ईर्यापथः । उत्तमार्थः निःशेषदोषालोचनपूर्वकाङ्गविसर्गसमर्थो यावज्जीवं चतुर्विधाहारपरित्यागः । अहरादिषु सप्तसु भवत्यहरादयो वा सप्त भुवो विषया यस्येत्याह्निकादिभेदात् सप्तविध इत्यर्थः । उक्तं च __ 'ऐर्यापथिकराव्युत्थं प्रतिक्रमणमाह्निकम् । पाक्षिकं च चतुर्मासवर्षोत्थं चोत्तमाथिकम् ॥' [ ] तथालोचनापूर्वकत्वात्प्रतिक्रमणायाः सापि तद्वत् सप्तधा स्यादित्यपि बोद्धव्यम् । उक्तं च 'आलोचणं दिवसियं राइय इरियावहं च बोद्धव्वं ॥ पक्खय-चाउम्मासिय संवच्छरमुत्तमटुं च ॥' [ मूलाचार, गा. ६१९] _त्रिधा-मनोवाक्कायैः कृतकारितानुमतैश्च । अथवा निन्दनगर्हणालोचनैर्मनोवाक्कायैर्वा । ध्वंस:-- आत्मनोऽपसारणमिति ग्राह्यम् । १२ नामस्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके आलम्बनसे उत्पन्न हुए अपराधके अथवा संचित हुए पापके मन-वचन-काय, अथवा कृत, कारित, अनुमोदनाके द्वारा दूर करनेको प्रतिक्रमण कहते हैं। दिन, रात, पक्ष, चतुर्मास, वर्ष, ईर्यापथ और उत्तमार्थके भेदसे प्रतिक्रमणके सात भेद हैं ॥५७।। विशेषार्थ-प्रतिक्रमण कहते हैं लगे हुए दोषोंकी विशुद्धिको । दोष लगनेके आलम्बन हैं नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव । अतः उनके शोधनको नामप्रतिक्रमण, स्थापन प्रतिक्रमण, द्रसप्रतिक्रमण, क्षेत्रप्रतिक्रमण, कालप्रतिक्रमण और भावप्रतिक्रमण कहते हैं। कहा है-'प्रमादसे लगे हुए दोषोंसे अपनेको दूर करके गुणों की ओर प्रवृत्ति करना प्रतिक्रमण है। अथवा किये हुए दोषोंकी विशुद्धिको प्रतिक्रमण कहते हैं। यह दोषविशुद्धि निन्दा, आलोचना और गहणासे की जाती है। अर्थात् अपराधी व्यक्ति अपने किये गये दोषोंके लिए अपनी निन्दा और गर्दा करता है, गुरुसे अपने दोषको कहता है। इस तरह अन्तरंगसे पश्चात्ताप करनेसे किये हुए दोषोंकी विशुद्धि होती है।' इसीसे सामायिक पाठमें कहा है'जैसे वैद्य मन्त्रके गुणोंसे समस्त विषको नष्ट कर देता है वैसे ही मैं विनिन्दा, आलोचना और गर्हाके द्वारा मन-वचन-काय और कषायके द्वारा किये गये पापको, जो सांसारिक दुःखोंका कारण है, नष्ट करता हूँ।' यह प्रतिक्रमण दिनमें, रातमें, पन्द्रह दिनमें, चार-चार मासमें तथा वर्ष आदि में किया जाता है इससे उसके सात प्रकार हैं। दिनके समय नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके आश्रयसे होनेवाले कृत कारित और अनुमत दोषका मन-वचन कायसे शोधन करना दैवसिक प्रतिक्रमण है। रात्रिके समयमें होनेवाले छह प्रकारके कृत-कारित और अनुमत दोषोंका मन-वचन-कायसे शोधन करना रात्रिक प्रतिक्रमण है। छह कायके जीवोंके विषयमें लगे हुए दोषोंका विशोधन करना ऐापथिक प्रतिक्रमण है। पन्द्रह दिन-रातोंमें छह नामादिके आश्रयसे हुए कृत, कारित, अनुमत दोषका मन-वचनकायसे शोधन करना पाक्षिक प्रतिक्रमण है। इसी प्रकार चार-चार मासमें हुए दोषोंका विशोधन चातुर्मासिक और एक वर्ष में हुए दोषोंका विशोधन सांवत्सरिक प्रतिक्रमण है। समस्त दोषोंकी आलोचना करके जीवनपर्यन्तके लिए चारों प्रकारके आहारका त्याग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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