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________________ अष्टम अध्याय ५६७ अवश्यस्य-व्याध्युपसर्गाद्यभिभूतस्य इन्द्रियानायत्तस्य वा ॥१६॥ अथावश्यकभेदोद्देशार्थमाह सामायिकं चतुविशतिस्तवो वन्दना प्रतिक्रमणम् । प्रत्याख्यानं कायोत्सर्गश्चावश्यकस्य षड्भेदाः ॥१७॥ स्पष्टम् ॥१७॥ अथ निक्षेपरहितं शास्त्र व्याख्यायमानं वक्तुः श्रोतुश्चोत्पथोत्थानं कुर्यादिति नामादिषु षट्सु पृथक् ६ निक्षिमानां सामायिकादीनां षण्णामप्यनुष्ठेयतामपदिशति नामस्थापनयो,व्यक्षेत्रयोः कालभावयोः । पृथग्निक्षिप्य विधिवत्साध्याः सामायिकादयः ॥१८॥ विधिवत्-आवश्यकनियुक्तिनिरूपितविधानेन ॥१८॥ विशेषार्थ-यहाँ 'आवश्यक 'शब्दकी निरुक्ति और लक्षण दोनों कहे हैं। वश्य उसे कहते हैं जो किसीके अधीन होता है और जो ऐसा नहीं होता उसे अवश्य कहते हैं और उसके कर्मको आवश्यक कहते हैं। आचार्य कुन्दकुन्दने भी कहा है जो अन्यके वशमें नहीं है उसके कर्मको आवश्यक कहते हैं। जो मनि अन्यके वशमें होता है वह अशभ शुभ भावरूपसे वर्तन करता है उसका कर्म आवश्यक नहीं हो सकता। अर्थात् जो श्रमणाभास द्रव्यलिंगी राग आदि अशुभभाव रूपसे वर्तन करता है वह परद्रव्यके वशमें होता है। वह केवल भोजनके लिए द्रव्यलिंग ग्रहण करके आत्मकार्यसे विमुख हो, तपश्चरण आदिसे भी उदासीन होकर जिनमन्दिर और उसकी भूमि आदिका स्वामी बन बैठता है यह नियमसारकी टीकामें पद्मप्रभ मलधारि देवने लिखा है जो उनके समयके मठाधीश साधुओंकी ओर संकेत है। अतः इन्द्रियोंके अधीन जो नहीं है ऐसा साधु जो जिनेन्द्रके द्वारा कथित आवश्यकोंका आचरण करता है उन्हें आवश्यक कहते हैं ।।१६।। आवश्यकके भेद कहते हैं सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग ये आवश्यकके छह भेद हैं ॥१७॥ निक्षेपके बिना किया गया शास्त्रका व्याख्यान वक्ता और श्रोता दोनोंको ही उन्मार्गमें ले जाता है । अतः नाम आदि छह निक्षेपोंमें पृथक्-पृथक् निक्षेप करके सामायिक आदि छह आवश्यकोंका व्याख्यान करनेका उपदेश करते हैं नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावमें पृथक्-पृथक् निक्षेप करके सामायिक आदि छह आवश्यकोंका आवश्यकनियुक्तिमें कही हुई विधिके अनुसार व्याख्यान करना चाहिए ॥१८॥ १. 'सामाइय चउ तीसत्थव वंदणयं पडिक्कमणं । पच्चक्खाणं च तहा काओसग्गो हवदि छट्टो ॥'-मूलाचार गा. ५१६ । 'णामटवणा दवे खेत्ते काले तहेव भावे य। सामाइयम्हि एसो णिक्खेओ छव्विहो णेओ ॥'-मूला. ५१८ गा.। ३. 'ण वसो अवसो अवसस्स कम्म वावस्सयं ति बोधवा ॥'-नियमसार १४२ गा.। 'जो ण हवदि अण्णवसो तस्स दुकम्म भणंति आवासं । कम्मविणासणजोगो णिव्वुदिमग्गो त्ति पिज्जत्तो ॥'-नियमसार १४१ गा. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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