________________
धर्मामृत ( अनगार) स्वान्यो-आत्मानात्मानौ। अप्रतियन्-प्रतीतिविषयावकुर्वन् । स्वेत्यादि-प्रतिनियतस्वरूपविशेषनियमात् । अस्वे-परस्मिन् शरीरादौ। परस्य-कर्मादेः । परार्थस्य-कर्मादिफलस्य । अर्थात३ परमार्थतः । यथाह
'मात्कर्तारममी स्पृशन्तु पुरुषं सांख्या इवाप्याहताः, कर्तारं कलयन्तु तं किल सदा भेदावबोधादधः । ऊवं तुद्धतबोधधामनियतं प्रत्यक्षमेनं स्वयं ।
पश्यन्तु च्युतकर्मभावमचलं ज्ञातारमेकं परम् ॥' [ समय., कलश, २०५ ] स्वान्येत्यादि-अन्यच्छरीरमन्योऽहमित्यादिभेदज्ञानावष्टम्भात् ॥६॥
विशेषार्थ-जीव और अजीव दोनों ही अनादिकालसे एक क्षेत्रावगाह संयोगरूप मिले हुए हैं । और अनादिसे ही जीव और पुद्गलके संयोगसे अनेक विकार सहित अवस्थाएँ हो रही हैं। किन्तु यदि परमार्थसे देखा जाये तो न तो जीव अपने चैतन्य स्वभावको छोड़ता है और न पुद्गल अपने जड़पने और मूर्तिकपनेको छोड़ता है। परन्तु जो परमार्थको नहीं जानते वे जीव और पुद्गलके संयोगसे होनेवाले भावोंको ही जीव जानते हैं। जैसे मूर्तिक पौद्गलिक कर्म के सम्बन्धसे जीवको मूर्तिक कहा जाता है। यह कथन व्यवहारसे है निश्चयसे जीवमें रूप, रस, गन्ध आदि नहीं हैं ये तो पुद्गलके गुण हैं। इन गुणोंका पुद्गलके साथ ही तादात्म्य सम्बन्ध है, जीवके साथ नहीं। यदि जीवको भी रूपादि गुणवाला माना जाये तो वह भी पुद्गल कहलायेगा, जीव नहीं। सारांश यह है कि प्रत्येक द्रव्यके अपने-अपने परिणाम भिन्न-भिन्न होते हैं। कोई भी द्रव्य अपने परिणामको छोड़कर , अन्य द्रव्यके परिणामको नहीं अपनाता। प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने परिणामका कर्ता होता है और वह परिणाम उसका कर्म है। अतः जीव अपने परिणामोंका कर्ता है और उसके परिणाम उसके कर्म हैं। इसी तरह अजीव अपने परिणामोंका कर्ता है और उसके परिणाम उसके कर्म हैं। अतः जीव और अजीवमें कार्यकारणभाव नहीं है। और इसलिए जीव परद्रव्यका कर्ता नहीं है। फिर भी उसके कर्मबन्ध होता है यह अज्ञानकी ही महिमा है। किन्तु जैनमतमें सांख्यमतकी तरह जीव सर्वथा अकर्ता नहीं है। सांख्यमतमें प्रकृतिको ही एकान्ततः कर्ता माना जाता है। उस तरह जैनमत नहीं मानता । समयसारकलशमें कहा हैअर्हत्के अनुयायी जैन भी आत्माको सांख्य मतवालोंकी तरह सर्वथा अकर्ता मत मानो। भेदज्ञान होनेसे पूर्व सदा कर्ता मानो । किन्तु भेदज्ञान होनेके पश्चात् उन्नत ज्ञानमन्दिरमें स्थिर , इस आत्माको नियमसे कर्तापनेसे रहित अचल एक ज्ञाता ही स्वयं प्रत्यक्ष देखो। . .
आशय यह है कि सांख्यमत पुरुषको सर्वथा अकर्ता मानता है और जड़ प्रकृतिको कर्ता मानता है। ऐसा माननेसे पुरुषके संसारके अभावका प्रसंग आता है । और जड़ प्रकृतिको संसार सम्भव नहीं है क्योंकि वह सुख-दुःखका संवेदन नहीं कर सकती। यदि जैन भी ऐसा मानते हैं कि कर्म ही जीवको अज्ञानी करता है क्योंकि ज्ञानावरणके उदयके बि अज्ञान भाव नहीं होता, कर्म ही आत्माको ज्ञानी करता है, क्योंकि ज्ञानावरणके क्षयोपशमके बिना ज्ञानकी प्राप्ति नहीं होती। कर्म ही आत्माको सुलाता है क्योंकि निद्रा नामक कर्मके उदय बिना निद्राकी प्राप्ति नहीं होती। कर्म ही आत्माको जगाता है क्योंकि निद्रा नामक कर्मके क्षयोपशमके बिना जागना सम्भव नहीं है। कर्म ही आत्माको दुःखी और सुखी करता है क्योंकि असाता वेदनीय और साता वेदनीय कर्मके उदयके बिना दुःख-सुख नहीं होता।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org