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अष्टम अध्याय
अथात्मनः सम्यग्दर्शनरूपतामनुसंधत्ते
यदि टङ्कोत्कीर्णंकज्ञायकभावस्वभावमात्मानम् ।
रागादिभ्यः सम्यग्विविच्य पश्यामि सुदृगस्मि ॥७॥ टकोत्कीर्णः-निश्चलसुव्यक्ताकारः । एकः-कर्तृत्वभोक्तृत्वरहितः। रागादिभ्यः-रागद्वेषमोहक्रोधमानमायालोभकर्मनोकर्म-मनोवचनकायेन्द्रियेभ्यः ॥७॥ ... अथ रागादिभ्यः स्वात्मनो विभक्तृत्वं समर्थयते
ज्ञानं जानत्तया ज्ञानमेव रागो रजत्तया।
राग एवास्ति न त्वन्यत्तच्चिद्रागोऽस्म्यचित् कथम् ॥८॥ कर्म ही आत्माको मिथ्यादृष्टि करता है क्योंकि मिथ्यात्व कर्मके उदयके बिना मिथ्यात्वकी प्राप्ति नहीं होती। कम ही आत्माको असंयमी करता है क्योंकि चारित्रमोहके उदयके विना असंयम नहीं होता। इस प्रकार सभी बात कर्म करता है और आत्मा एकान्तसे अकर्ता है । ऐसा माननेवाले जैन भी सांख्यकी तरह ही मिथ्यादष्टि हैं। अतः जैनोंको सांख्योंकी तरह आत्माको सर्वथा अकर्ता नहीं मानना चाहिए। किन्तु जहाँ तक स्व और परका भेदज्ञान न हो वहाँ तक तो आत्माको रागादिरूप भावकोंका कर्ता मानो और भेदविज्ञान होनेके पश्चात् समस्त कर्तृत्व भावसे रहित एक ज्ञाता ही मानो। इस तरह एक ही आत्मामें विवक्षावश कर्ता-अकर्ता दोनों भाव सिद्ध होते हैं ।।६।।
आगे आत्माको सम्यग्दर्शन स्वरूपका अनुभव कराते हैं
सम्यक् रूपसे राग, द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय, इन्द्रियसे भिन्न करके टाँकीसे उकेरे गयेके समान कर्तत्व, भोक्तृत्वसे रहित स्वभाव आत्माका यदि मैं अनुभव करता हूँ तो मैं सम्यग्दर्शन स्वरूप हूँ ॥७॥
विशेषार्थ-अपनी सभी स्वाभाविक और नैमित्तिक अवस्थाओंमें व्याप्त वह आत्मा शुद्धनयसे एक ज्ञायक मात्र है उसको रागादि भावोंसे मन, वचन, काय, और इन्द्रियोंसे भिन्न करके अर्थात् ये मैं नहीं हूँ न ये मेरे हैं मैं तो एक कर्तृत्व भोक्तृत्वसे रहित ज्ञाता मात्र हूँ ऐसा अनुभवन करना ही सम्यग्दर्शन है। इसमें सातों तत्त्वोंका श्रद्धान समाविष्ट है क्योंकि सात तत्त्वोंके श्रद्धानके विना स्व और परका सम्यक् श्रद्धान नहीं होता। जिसके सच्चा आपा परका श्रद्धान व आत्माका श्रद्धान होता है उसके सातों तत्त्वांका श्रद्धान होता ही है और जिसके सच्चा सातों तत्त्वोंका श्रद्धान होता है उसके आपा परका और आत्माका श्रद्धान होता ही है । इसलिए आस्रवादिके साथ आपा परका व आत्माका श्रद्धान करना ही योग्य है। सातों तत्त्वार्थों के श्रद्धानसे रागादि मिटाने के लिए परद्रव्योंको भिन्न माना है । तथा अपने आत्माको भाता है तभी प्रयोजनकी सिद्धि होती है। ऐसा करनेसे यदि उक्त प्रकारसे आत्मानुभूति होती है तो वह अपनेको सम्यग्दृष्टि मानता है। टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायक भाव रूप आत्माका अनुभवरूप सम्यग्दर्शन आत्मासे भिन्न पदार्थ नहीं है । आत्माका ही परिणाम है । अतः जो सम्यग्दर्शन है वह आत्मा ही है, अन्य नहीं है ॥७॥
आगे रागादिसे अपने आत्माकी भिन्नताका समर्थन करते हैं
ज्ञानका स्वभाव जानना है अतः स्व और परका अवभासक स्वभाव वाला होनेसे ज्ञान ज्ञान ही है, ज्ञान रागरूप नहीं है। तथा इष्ट विषयमें प्रीति उत्पन्न करनेवाला होनेसे राग राग ही है ज्ञान रूप नहीं है। इसलिए स्व और परका अवभासक स्वभाव चित्स्वरूप
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