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अष्टम अध्याय
५५७ अथाभेदविज्ञानाभावाद् व्यवहारादेव परं प्रत्यात्मनः कर्तृत्वभोक्तृत्वे परमार्थतश्च ज्ञातृत्वमात्रमनुचिन्त्य भेदविज्ञानाच्छुद्धस्वात्यानुभूतये प्रयत्नं प्रतिजानीते
स्वान्यावप्रतियन् स्वलक्षणकलानयत्यतोऽस्वेऽहमि
त्यैक्याध्यासकृतेः परस्य पुरुषः कर्ता परार्थस्य च । भोक्ता नित्यमहंतयानुभवनाज्ज्ञातैव चार्थात्तयो
स्तत्स्वान्यप्रविभागबोधबलतः शुद्धात्मसिद्धयै यते ॥६॥ या उनका निमित्त कारण है। इसके उत्तरमें कहा है-निश्चयसे अपने चैतन्य स्वरूप रागादि परिणामोंसे स्वयं ही परिणमन करते हुए आत्माके पौद्गलिक कर्म निमित्त मात्र होते हैं। अर्थात् रागादिका निमित्त पाकर आत्माके प्रदेशोंके साथ बँधे पौद्गलिक कर्मोंके निमित्तसे यह आत्मा अपनेको भूलकर अनेक प्रकारके विभावरूप परिणमन करता है और इन विभावभावोंके निमित्तसे पुद्गल कर्मों में ऐसी शक्ति होती है जिससे चेतन आत्मा विपरीत रूप परिणमन करता है। इस तरह द्रव्यकर्मसे भावकर्म और भावकर्मसे द्रव्यकर्म होते हैं। इसीका नाम संसार है। बन्धके कारण तत्त्वार्थ सूत्र में पाँच कहे हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग । किन्तु समयसारमें प्रमादका अन्तर्भाव अविरतिमें करनेसे चार ही कारण कहे हैं । मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग । ये चारों द्रव्य प्रत्यय और भाव
प्रत्ययके भेदसे दो-दो प्रकारके होते हैं । भावप्रत्यय अर्थात् चेतनाके विकार और द्रव्यप्रत्यय । अर्थात् जड़ पुद्गलके विकार । पुद्गल कर्मका कर्ता निश्चयसे पुद्गल द्रव्य ही होता है
उसीके भेद मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग हैं। जो पुद्गलके परिणाम हैं वे ज्ञानावरण आदि पुद्गलोंके आने में निमित्त हैं। तथा उनके भी निमित्त हैं राग-द्वेष-मोहरूप आत्म परिणाम । अतः आस्रवके निमित्त में भी निमित्त होनेसे राग-द्वेष मोह ही बन्धके कारण हैं । सारांश यह है कि ज्ञानावरणादि कर्मोंके आनेका कारण तो मिथ्यात्व आदि कर्मके उदयरूप पुद्गलके परिणाम हैं और उन कोंके आनेके निमित्तका भी निमित्त राग द्वेष मोह रूप परिणाम हैं जो चेतनके ही विकार हैं और जीवकी अज्ञान अवस्थामें होते हैं। इस प्रकार आत्मा ही आत्माको बाँधकर दुःख उठाता है ।।५।।
आगे कहते हैं कि भेदविज्ञान होनेसे पहले यह जीव अपनेको परका कर्ता और भोक्ता मानता है। किन्तु यह कर्तृत्व और भोक्तृत्व व्यवहारसे ही है परमार्थसे आत्मा केवल ज्ञातामात्र है, ऐसा विचारकर भेदविज्ञानसे शुद्ध स्वात्माकी अनुभूतिके लिए प्रयत्न करनेकी प्रतिज्ञा करते हैं___जीव और अजीवका स्वरूप भिन्न-भिन्न प्रतिनियत है। उसको न जानकर अर्थात् अपने-अपने सुनिश्चित स्वरूपके द्वारा जीव और अजीवको न जानकर, अजीवमें 'यह मैं हूँ' इस प्रकारके एकत्वका आरोप करनेसे आत्मा परका कर्ता और कर्मादि फलका भोक्ता प्रतीत होता है। किन्तु परमार्थसे सर्वदा 'मैं' इस प्रकारका ज्ञान होनेसे जीव कर्म और कर्मफलका ज्ञाता ही है। अतः जीव और अजीवके भेदज्ञानके बलसे मैं निर्मल अपनी आत्माकी प्राप्तिके लिए ही प्रयत्न करनेकी प्रतिज्ञा करता हूँ ॥६॥
१. 'परिणममानस्य चितश्चिदात्मकैः स्वयमपि स्वर्भावैः ।
भवति हि निमित्तमात्रं पोद्गलिकं कर्म तस्यापि' ।-पुरुषार्थ.१३ ।
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