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________________ धर्मामृत ( अनगार) अथानादिसंतत्या प्रवर्तमानमात्मनः प्रमादाचरणमनुशोचति मत्प्रचुत्य परेहमित्यवगमादाजन्म रज्यन् द्विषन् प्रामिथ्यात्वमुखैश्चतुभिरपि तत्कर्माष्टधा बन्धयन् । मूर्तिमहं तदुद्भवभवैर्भावरसंचिन्मयै ____ोजं योजमिहाद्य यावदसदं ही मां न जात्वासदम् ।।५।। मत्-मत्तश्चिच्चमत्कारमात्रस्वभावादात्मनः । प्रच्युत्य-पराङ्मुखीभूय । प्रामिथ्यात्वमुखैःपूर्वोपात्तमिथ्यात्वासंयमकषाययोगैः। चतुभिः. प्रमादस्याविरतावन्तर्भावात् । आत्मा प्रमुच्यते । अत्र कर्तरि तृतीया। उक्तं च 'सामण्णपच्चया खलु चदुरो भण्णंति बंधकत्तारो। मिच्छत्तं अविरमणं कसाय जोगा य बोद्धव्वा ॥' [ समयप्रा. १०९ गा.] अपि इत्यादि । प्रतिसमयमायुर्वजं ज्ञानावरणादिसप्तविधं कर्म कदाचिदष्ट प्रकारमपीत्यर्थ द्रव्यरूपत्वात् पौद्गलिकः। भावै:-भावमिथ्यात्वरागादिभिः । असंचिन्मयैः-परार्थसंचेतन ज्ञानमयैः । यो योज-परिणम्य परिणम्य । असदं-अवसादमगममहम् । आसदं-प्रापमहम् ॥५॥ अनादिकालसे जो आत्माका प्रमादजनित आचरण चला आता है उसपर खेद, प्रकट करते हैं बड़ा खेद है कि चेतनाका चमत्कार मात्र स्वभाववाले अपने आत्मासे विमुख होकर और शरीरादिकमें 'यह मैं हूँ' ऐसा निश्चय करके अनादिकालसे इष्ट विषयोंसे राग और अनिष्ट विषयोंसे द्वेष करता आया हूँ। और इसीसे पूर्वबद्ध मिथ्यात्व असंयम कषाय और योगरूप चार पौद्गलिक भावोंके द्वारा आठ प्रकारके उन प्रसिद्ध ज्ञानावरणादि रूप पौद्गलिक कर्मोका बन्ध करता आया हूँ। तथा उन मूत कर्मोके उदयसे उत्पन्न होनेवाले अज्ञानमय मिथ्यात्व रागादि भावरूप परिणमन कर-करके इस संसारमें आज तक कष्ट उठा रहा हूँ ॥५॥ विशेषार्थ-जीव अनादिकालसे अपनी भूलके कारण इस संसारमें दुःख उठाता है । अपने चैतन्य स्वभावको भूलकर शरीरादिको ही 'यह मैं हूँ' ऐसा मानता है। जो वस्तुएँ उसे रुचती हैं उनसे राग करता है जो नहीं रुचतीं उनसे द्वेष करता है। ये रागद्वेष ही नवीन कर्मबन्धमें निमित्त होते हैं। कहा है-आत्मा संसार अवस्थामें अपने चैतन्य स्वभाव को छोड़े बिना ही अनादि बन्धनके द्वारा बद्ध होनेसे अनादि मोह-राग-द्वेषरूप अशुद्ध भावसे परिणमित होता है। वह जब जहाँ मोहरूप, रागरूप और द्वेषरूप अपने भावको करता है उसी समय वहाँ उसी भावको निमित्त बनाकर जीवके प्रदेशोंमें परस्पर अवगाह रूपसे प्रविष्ट हुए पुद्गल स्वभावसे ही कर्मपनेको प्राप्त होते हैं। अर्थात् जहाँ आत्मा रहता है वहाँ कर्मवर्गणाके योग्य पुद्गल पहलेसे ही रहते हैं और आत्माके मिथ्यात्व रागादिरूप परिणामोंको निमित्त बनाकर स्वयं ही कर्मरूपसे परिणमन करते हैं। उन्हें कोई जबरदस्ती नहीं परिणमाता। प्रश्न होता है कि जीवके जो राग-द्वेषरूप भाव होते हैं क्या वे स्वयं होते हैं १. 'अत्ता कुणदि सभावं तत्थ गदा पोग्गला सभावेहिं । गच्छंति कम्मभावे अण्णोण्णागाहमवगाढा ॥' पञ्चास्तिकाय ६५ गा. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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