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अष्टम अध्याय
है।' इसी बातको आचार्यने कलश द्वारा भी कहा है-अर्थात् आत्मा जब ज्ञानी होता है तब अपने बुद्धि पूर्वक समस्त रागको स्वयं ही सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके कालसे लेकर निरन्तर छोड़ता है । और अबुद्धिपूर्वक रागको जीतनेके लिए बारम्बार अपनी शुद्ध चैतन्यरूप शक्तिका स्वानुभव प्रत्यक्षरूपसे अनुभवन करता है। इसका आशय है कि ज्ञानी होते ही जब सब रागको हेय जाना तो बुद्धिपूर्वक रागका तो परित्याग कर दिया। रहा, अबुद्धिपूर्वक राग, उसके मेटनेका प्रयत्न करता है। इस कलशकी व्याख्या करते हुए पं. राजमल्लजीने लिखा है-'भावार्थ इस प्रकार है--मिथ्यात्व रागद्वेष रूप जो जीवके अशुद्ध चेतना रूप विभाव परिणाम, वे दो प्रकारके हैं-एक परिणाम बुद्धिपूर्वक है, एक परिणाम अबुद्धिपूर्वक है। बुद्धिपूर्वक कहनेपर जो परिणाम मनके द्वारा प्रवर्तते हैं, बाह्य विषयके आधारसे प्रवर्तते हैं । प्रवर्तते हुए वह जीव आप भी जानता है कि मेरा परिणाम इस रूप है। तथा अन्य जीव भी अनुमान करके जानते हैं जो इस जीवके ऐसे परिणाम हैं। ऐसा परिणाम बुद्धिपूर्वक कहा जाता है । सो ऐसे परिणामको सम्यग्दृष्टि जीव मेट सकता है क्योंकि ऐसा परिणाम जीवकी जानकारीमें है। अबुद्धिपूर्वक परिणाम कहनेपर पाँच इन्द्रिय और मनके व्यापारके बिना ही मोहकमके उदयका निमित्त पाकर मोह रागद्वेषरूप अशुद्ध विभाव परिणामरूप आप स्वयं जीव द्रव्य असंख्यात प्रदेशोंमें परिणमता है सो ऐसा परिणमन जीवकी जानकारीमें नहीं है और जीवके सहाराका भी नहीं है। इसलिए जिस किसी प्रकार मेटा जाता नहीं है। अतएव ऐसे परिणामके मेटनेके लिए निरन्तरपने शुद्धस्वरूपको अनुभवता है। अतः सम्यग्दृष्टि जीव निरास्रव है।' आशय यह है कि बन्धके करनेवाले तो जीवके राग-द्वेषमोहरूप भाव हैं। जब मिथ्यात्व आदिका उदय होता है तब जीवका राग-द्वेष-मोहरूप जैसा भाव होता है उसके अनुसार आगामी बन्ध होता है। और जब सम्यग्दृष्टि होता है तब यदि मिथ्यात्वकी सत्ताका ही नाश हो जाता है तो उसके साथ अनन्तानुबन्धी कषाय तथा उस सम्बन्धी अविरति और योगभाव भी नष्ट हो जाते हैं और तब उस सम्बन्धी राग द्वेष-मोह भी जीवके नहीं होते । तथा मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धीका आगामी बन्ध भी नहीं होता और यदि मिथ्यात्वका उपशम ही होता है तो वह सत्तामें रहता है। किन्तु सत्ताका द्रव्य उदयके बिना बन्धका कारण नहीं है। और जो अविरत सम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानोंकी परिपाटीमें चारित्रमोहके उदयको लेकर बन्ध कहा है उसे यहाँ बन्धमें नहीं गिना है क्योंकि ज्ञानी-अज्ञानीका भेद है। जबतक कर्मके उदयमें कर्मका स्वामीपना रखकर परिणमन करता है तबतक ही कमका कर्ता कहा है। परके निमित्तसे परिणमन करे
और उसका मात्र ज्ञाता-द्रष्टा रहे तब ज्ञानी ही है, कर्ता नहीं है। ऐसी अपेक्षासे सम्यग्दष्टि होनेपर चारित्रमोहके उदयरूप परिणामके होते हुए भी ज्ञानी ही कहा है । जबतक मिथ्यात्वका उदय है तबतक उस सम्बन्धी रागद्वेष-मोहरूप परिणाम होनेसे अज्ञानी कहा है। ऐसे ज्ञानी और अज्ञानीका भेद समझना चाहिए। इसीसे बन्ध और अबन्धका भेद स्पष्ट होता है। कहा भी है-राग और द्वेषसे की गयी प्रवृत्ति और निवृत्तिसे जीवके बन्ध होता है और तत्त्वज्ञानपूर्वक की गयी उसी प्रवृत्ति और निवृत्तिसे मोक्ष होता है ॥४॥'
१. 'संन्यस्यन्निजबुद्धिपूर्वमनिशं रागं समग्रं स्वयं,
बारम्बारमबुद्धिपूर्वमपि तं जेतुं स्वशक्ति स्पृशन् ।'
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