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धर्मामृत ( अनगार) अथानुप्रेक्षाख्यं तद्विकल्पं लक्षयति
साऽनुप्रेक्षा यदभ्यासोऽधिगतार्थस्य चेतसा।
स्वाध्यायलक्षम पाठोऽन्तर्जल्पात्माऽत्रापि विद्यते ॥८६॥ विद्यते-अस्ति प्रतीयते वा । आचारटीकाकारस्तु 'प्रच्छन्नशास्त्रश्रवणमनुप्रेक्ष्य वाऽनित्यत्वाद्यनुचिन्तनमिति व्याचष्टे ॥८६॥ अथाम्नायं धर्मोपदेशं च तद्भेदमाह
__ आम्नायो घोषशुद्धं यद वृत्तस्य परिवर्तनम् ।
धर्मोपदेशः स्याद्धर्मकथा संस्तुतिमङ्गला ॥८॥ ९ घोषशुद्धं-घोष उच्चारणं शुद्धो द्रुतविलम्बितादिदोषरहितो यत्र । वृत्तस्य-पठितस्य शास्त्रस्य ।
परिवर्तनं-अनूद्यवचनम्। संस्तुतिः-देववन्दना। मङ्गलं-पञ्चनमस्काराशीः शान्त्यादिवचनादि । उक्त च
'परियट्टणा य वायण पच्छणमणुपेहणा य धम्मकहा।
थुदिमंगलसंजुत्तो पंचविहो होइ सज्झाओ॥ [ मूलाचार, गा. ३९३ ] धर्मकथेति त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितानीत्याचारटीकायाम् ॥८७॥ अथ धर्मकथायाश्चातुर्विघ्यं दर्शयन्नाह -
विशेषार्थ-इस शब्द, पद या वाक्यको कैसे पढ़ना चाहिये यह शब्दविषयक पृच्छा है और इस शब्द, पद या वाक्यका क्या अर्थ है, यह अर्थविषयक पृच्छा है। ग्रन्थकार कहते हैं जो ऐसा पूछता है क्या वह पढ़ता नहीं है, पढ़ता है तभी तो पूछता है। अतः प्रश्न करना मुख्य रूपसे स्वाध्याय है ।।८५॥
स्वाध्यायके भेद अनुप्रेक्षाका स्वरूप कहते हैं
जाने हुए या निश्चित हुए अर्थका मनसे जो बार-बार चिन्तवन किया जाता है वह अनुप्रेक्षा है। इस अनुप्रेक्षामें भी स्वाध्यायका लक्षण अन्तर्जल्प रूप पाठ आता है।॥८६॥
विशेषार्थ-वाचना वगैरहमें बहिर्जल्प होता है और अनुप्रेक्षामें मन ही मनमें पढ़ने या विचारनेसे अन्तर्जल्प होता है। अतः स्वाध्यायका लक्षण उसमें भी पाया जाता है। मूलाचारकी टीकामें ( ५।१९६) अनित्यता आदिके बार-बार चिन्तवनको अनुप्रेक्षा कहा है और इस तरह उसे स्वाध्यायका भेद स्वीकार किया है ।।८६॥
आगे स्वाध्यायके आम्नाय और धर्मोपदेश नामक भेदोंका स्वरूप कहते हैं
पढ़े हुए ग्रन्थके शुद्धतापूर्वक पुनः पुनः उच्चारणको आम्नाय कहते हैं। और देववन्दनाके साथ मंगल पाठपूर्वक धर्मका उपदेश करनेको धर्मकथा कहते हैं ।।८।।
विशेषार्थ-पठित ग्रन्थको शुद्धता पूर्वक उच्चारण करते हुए कण्ठस्थ करना आम्नाय है। मूलाचारकी टीकामें तेरसठ शलाका पुरुषोंके चरितको धर्मकथा कहा है अर्थात् उनकी चर्चा वार्ता धर्मकथा है ॥८॥
आगे धर्मकथाके चार भेदोंका स्वरूप कहते हैं
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