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________________ ३ सप्तम अध्याय ५३७ आक्षेपणों स्वमतसंग्रहणी समेक्षी, विक्षेपणों कुमतनिग्रहणों यथार्हम् । संवेजनों प्रथयितु सुकृतानुभावं, निवेदनों वदतु धर्मकथां विरक्त्यै ॥८॥ समेक्षी-सर्वत्र तुल्यदर्शी उपेक्षाशील इत्यर्थः । सुकृतानुभावं-पुण्यफलसंपदम् । विरक्त्यै- भवभोगशरीरेषु वैराग्यं जनयितुम् ।।८८॥ अथ स्वाध्यायसाध्यान्यभिधातुमाह प्रज्ञोत्कर्षजुषः श्रुतस्थितिपुषश्चेतोऽक्षसंज्ञामुषः ___ संदेहच्छिदुराः कषायभिदुराः प्रोद्यत्तपोमेदुराः। संवेगोल्लसिताः सदध्यवसिताः सर्वातिचारोज्झिताः स्वाध्यायात् परवाद्यशङ्कितधियः स्युः शासनोभासिनः ॥८॥ धर्मकथाके चार भेद हैं-आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेजनी और निर्वदनी। समदर्शी वक्ताको यथायोग्य अनेकान्त मतका संग्रह करनेवाली आक्षेपणी कथाको, एकान्तवादी मतोंका निग्रह करनेवाली विक्षेपणी कथाको, पुण्यका फल बतलानेके लिए संवेजनी कथाको और संसार शरीर और भोगोंमें वैराग्य उत्पन्न कराने के लिए निवेदनी कथाको कहना चाहिए ।।८।। विशेषार्थ-भगवती आराधना (गा-६५६-६५७ ) में धर्मकथाके उक्त चार भेद कहे हैं। जिस कथामें ज्ञान और चारित्रका कथन किया जाता है कि मति आदि ज्ञानोंको यह स्वरूप है और सामायिक आदि चारित्रका यह स्वरूप है उसे आक्षेपणी कहते हैं। जिस कथामें स्वसमय और परसमयका कथन किया जाता है वह विक्षेपणी है। जैसे वस्तु सर्वथा नित्य है, या सर्वथा क्षणिक है, या सर्वथा एक ही है, या सर्वथा अनेक ही है, या सब सत्स्वरूप ही है, या विज्ञानरूप ही है, या सर्वथा शून्य है इत्यादि। परसमयको पूर्वपक्षके रूपमें उपस्थित करके प्रत्यक्ष अनुमान और आगमसे उसमें विरोध बतलाकर कथंचित् नित्य, कथंचित् अनित्य, कथंचित् एक, कथंचित् अनेक इत्यादि स्वरूपमयका निरूपण करना विक्षेपणी कथा है। ज्ञान, चारित्र और तपके अभ्याससे आत्मामें कैसी-कैसी शक्तियाँ प्रकट होती हैं इसका निरूपण करनेवाली कथा संवेजनी है। शरीर अपवित्र है क्योंकि रस आदि सात धातुओंसे बना है, रज और वीर्य उसका बीज है, अशुचि आहारसे उसकी वृद्धि होती है और अशुचि स्थानसे वह निकलता है। और केवल अशुचि ही नहीं है असार भी है । तथा स्त्री, वस्त्र, गन्ध, माला-भोजन आदि भोग प्राप्त होनेपर भी तृप्ति नहीं होती। उनके न मिलनेपर या मिलने के बाद नष्ट हो जानेपर महान शोक होता है। देव और मनुष्य पर्याय भी दुःखबहुल है, सुख कम है। इस प्रकार शरीर और भोगोंसे विरक्त करनेवाली कथा निर्वेदनी है ॥८८॥ स्वाध्यायके लाभ बतलाते हैं स्वाध्यायसे मुमुक्षकी तर्कणाशील बुद्धिका उत्कर्ष होता है, परमागमकी स्थितिका पोषण होता है अर्थात् परमागमकी परम्परा पुष्ट होती है। मन, इन्द्रियाँ और संज्ञा अर्थात् आहार, भय, मैथुन और परिग्रहकी अभिलाषाका निरोध होता है। सन्देह अर्थात् संशयका १. आक्षेपिणी कथां कुर्यात् प्राज्ञः स्वमतसंग्रहे । विक्षेपिणी कथां तज्ज्ञः कुर्याद् दुर्मतनिग्रहः ।। संवेदिनों कथां पुण्यफलसम्पत्प्रपञ्चने । निर्वेदिनों कथां कुर्याद वैराग्यजननं प्रति ॥ -महापु. १२१३५-१३६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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