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________________ सप्तम अध्याय ५२९ ५२९ अथ प्रत्यक्षपूज्यविषयस्यौपचारिक (विनयस्य) कायिकभेदं सप्तप्रकारं व्याकर्तुमाह अभ्युत्थानोचितवितरणोच्चासनाधुज्झनानु. __ व्रज्या पोठाद्युपनयविधिः कालभावाङ्गयोग्यः । कृत्याचारः प्रणतिरिति चाङ्गेन सप्तप्रकारः कार्यः साक्षाद् गुरुषु विनयः सिद्धिकामैस्तुरीयः ॥७१॥ अभ्युत्थानं आदरेणासनादेरुत्थानम् । उचितवितरणं-योग्यपुस्तकादिदानम् । उच्चासनादि- ६ उच्चस्थानगमनादि । अनुव्रज्या-प्रस्थितेन सह किंचिद गमनम । कालयोग्यः-उष्णकालादिषु शीतादिक्रिया भावयोग्यः प्रेषणादिकरणम् । अङ्गयोग्यः-शरीरबलयोग्यं मर्दनादि । उक्तं च 'पडिरूवकायसंफासणदा पडिरूवकालकिरिया य । पेसणकरणं संधारकरणं उवकरणपडिलिहणं ॥' [ मूलाचार, गा. ३७५ ] प्रणतिरिति-इति शब्दादेवं प्रकारोऽन्योऽपि सन्मुखगमनादिः । सप्रकारः । उक्तं च 'अह ओपचारिओ खलु विणओ तिविहो समासदो भणिओ। सत्त चउविह दुविहो बोधव्वो आणुपुबीए ॥' [ मूलाचार, गा. ३८१ ] ॥७१॥ अथ तद्वाचिकभेदमाह हितं मितं परिमितं वचः सूत्रानुवीचि च । ब्रुवन् पूज्याश्चतुर्भेदं वाचिकं विनयं भजेत् ॥७२॥ हितं-धर्मसंयुक्तम् । मितं-अल्पाक्षरबह्वर्थम् । परिमितं--कारणसहितम् । सूत्रानुवीचि- .. प्रत्यक्ष में वर्तमान पूज्य पुरुषोंकी काय सम्बन्धी औपचारिक विनयके सात भेद कहते हैं __ पूज्य गुरुजनोंके साक्षात् उपस्थित होनेपर स्वात्मोपलब्धिरूप सिद्धिके इच्छुक साधुओंको शरीरसे सात प्रकारका औपचारिक विनय करना चाहिए-१. उनके आनेपर आदरपूर्वक अपने आसनसे उठना। २. उनके योग्य पुस्तक आदि देना। ३. उनके सामने ऊँचे आसनपर नहीं बैठना । ४. यदि वे जावे तो उनके साथ कुछ दूरी तक जाना। ५. उनके लिए आसन आदि लाना। ६. काल भाव और शरीरके योग्य कार्य करना अर्थात् गर्मीका समय हो तो शीतलता पहुँचानेका और शीतऋतु हो तो शीत दूर करनेका प्रयत्न करना । ७. प्रणाम करना। इसी प्रकारके अन्य भी कार्य कायिक उपचार विनय है ।।७१।। विशेषार्थ-मूलाचारमें कहा है-गुरु आदिके शरीरके अनुकूल मर्दन आदि करना, इसकी विधि यह है कि गुरुके समीपमें जाकर उनकी पीछीसे उनके शरीरको तीन बार पोंछकर आगन्तुक जीवोंको बाधा न हो इस तरह आदर पूर्वक जितना गुरु सह सके उतना ही मर्दन करे, तथा बाल वृद्ध अवस्थाके अनुरूप वैयावृत्य करे, गुरुकी आज्ञासे कहीं जाना हो तो जाये, घास वगैरहका सँथरा बिछावे और प्रातः सायं गुरुके उपकरणोंका प्रतिलेखन करे । यह सब कायिक विनय है ॥७॥ वाचिक औपचारिक विनयके भेद कहते हैं पूज्य पुरुषोंकी चार प्रकारकी वाचिक विनय करना चाहिए-हित अर्थात् धर्मयुक्त वचन बोले, मित अर्थात् शब्द तो गिने चुने हों किन्तु महान् अर्थ भरा हो, परिमित अर्थात् ६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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