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________________ ६ ९ १२ १५ ५३० आगमविरुद्धं ( ओगमार्थाविरुद्धम् ) । वाक्यं च ) ॥७२॥ धर्मामृत (अनगार ) शब्दाद् भगव- ( न्नित्यादिपूजापुरस्सरं वचनं वाणिज्याद्यवर्णकं निरुन्धन्न शुभं भावं कुर्वन् प्रियहिते मतिम् । आचार्यादेरवाप्नोति मानसं विनयं द्विधा ॥७३॥ ( अशुभं ... सम्यक्त्ववि - ) राधनप्राणिवधादिकम् । प्रियहिते - प्रिये धर्मोपकारके, हिते च सम्यक्त्वज्ञानादिके । आचार्यादेः - सूर्युपाध्यायस्थविरप्रवर्तकगणधरादेः ॥७३॥ अथ परोक्षगुर्वादिगोचरमौपचारिक विनयं त्रिविधं प्रति प्रयुङ्क्ते - वाङ्मनस्तनुभिः स्तोत्रस्मृत्यञ्जलिपुटादिकम् । परोक्षेष्वपि पूज्येषु विदध्याद्विनयं त्रिधा ॥७४॥ अपि पूज्येषु — दीक्षागुरु श्रुतगुरु-तपोधिकेषु । अपिशब्दात् तपोगुणवयः कनिष्ठेष्वार्थेषु श्रावकेषु च यथार्हं विनयकरणं लक्षयति । यथाहु: 'रादिणिए उणरादिणिए सु अ अज्जा सु चेव गिहिवग्गे । विणओ जहारिहो सो कायव्वो अप्पमत्तेण ॥' [ मूलाचार, गा. ३८४ ] रादिणिए - राधिके दीक्षागुरी श्रुतगुरौ तपोऽधिके चेत्यर्थः । उण रादिणिएसु ऊनरात्रेषु तपसा गुणैर्वयसा च कनिष्ठेषु साधुष्वित्यर्थः ॥७४॥ कारण होनेपर ही बोले, तथा आगमसे अविरुद्ध बोले । 'च' शब्द से भगवान्की नित्य पूजा आदिसे सम्बद्ध वचन बोले और व्यापार आदिसे सम्बद्ध वचन न बोले ॥७२॥ मानसिक औपचारिक विनयके भेद कहते हैं - आचार्य आदि के विषय में अशुभ भावोंको रोकता हुआ तथा धर्मोपकारक कार्यों में और सम्यग्ज्ञानादिक विषयमें मनको लगाता हुआ मुमुक्षु दो प्रकारकी विनयको प्राप्त होता है । अर्थात् मानसिक विनयके दो भेद हैं- अशुभ भावोंसे निवृत्ति और शुभ भावोंमें प्रवृत्ति || १३ || विशेषार्थ - मूलाचार में कहा है - संक्षेप में औपचारिक विनयके तीन भेद हैं-कायिक, वाचिक और मानसिक । कायिकके सात भेद हैं, वाचिकके चार भेद हैं और मानसिक के दो भेद हैं । दशैवैकालिक ( अ. ९) में भी वाचिकके चार तथा मानसिकके दो भेद कहे हैं किन्तु कायिकके आठ भेद कहे हैं ||७३ || आगे परोक्ष गुरु आदिके विषय में तीन प्रकारकी औपचारिक विनय कहते हैं - जो दीक्षागुरु, शास्त्रगुरु और तपस्वी पूज्य जन सामने उपस्थित नहीं हैं, उनके सम्बन्ध में वचन, मन और कायसे तीन प्रकारकी विनय करनी चाहिए। वचनसे उनका स्तवन आदि करना चाहिए, मनसे उनके गुणोंका स्मरण- चिन्तन करना चाहिए और कायसे परोक्षमें भी उन्हें हाथ जोड़कर प्रणाम आदि करना चाहिए । 'अपि' शब्दसे तात्पर्य है कि जो अपने से तपमें, गुणमें और अवस्थामें छोटे हैं उन साधुओं में तथा श्रावकों में भी यथायोग्य विनय करना चाहिए ||७४ || १. भ. कु. च । २. भ. कु. च । 'भगव' इत्यतोऽग्रे लिपिकारप्रमादेनाग्रिमश्लोकस्य भागः समागत इति प्रतिभाति । Jain Education International ३. पडिवो खलु विणओ काइयजोए य वाय माणसिओ । अट्ठ चव्विह दुविहो परूवणा तस्सिया होई ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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