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धर्मामृत ( अनगार) यत्नो हि कालशुद्धचादौ स्याज्ज्ञानविनयोऽत्र तु।
सति यत्नस्तदाचारः पाठे तत्साधनेषु च ॥६॥ अत्र-कालशुद्धयादौ सति । पाठे-श्रुताध्ययने । तत्साधनेषु-पुस्तकादिषु ॥६८।। अथ चारित्रविनयं व्याचष्टेरुच्याऽरुच्यहृषीकगोचररतिद्वेषोज्झनेनोच्छलत्
क्रोधादिच्छिदयाऽसकृत्समितिषूद्योगेन गुप्त्यास्थया। सामान्येतरभावनापरिचयेनापि व्रतान्यद्धरन
धन्यः साधयते चरित्रविनयं श्रेयः श्रियः पारयम् ॥६९॥ रुच्या:-मनोज्ञाः । गुप्त्यास्थया-शुभमनोवाक्कायक्रियास्वादरेण । सामान्येतरभावना--सामान्येन माऽभूत् कोऽपीह दुःखीत्यादिना । विशेषेण च निगृह्णतो वाङ्मनसी इत्यादिना ग्रन्थेन प्रागुक्ताः । पारयंसमथं पोषकं वा ॥६९।। अथ चारित्रविनयतदाचारयोविभागलक्षणार्थमाह---
समित्यादिषु यत्नो हि चारित्रविनयो मतः ।
तदाचारस्तु यस्तेषु सत्सु यत्नो वताश्रयः ॥७०॥ स्पष्टम् ॥७॥
कालशुद्धि, व्यंजनशुद्धि आदिके लिए जो प्रयत्न किया जाता है वह ज्ञानविनय है । और कालशुद्धि आदिके होनेपर जो श्रुतके अध्ययनमें और उसके साधक पुस्तक आदिमें यत्न किया जाता है वह ज्ञानाचार है। अर्थात् ज्ञानके आठ अंगोंकी पूर्तिके लिए प्रयत्न ज्ञानविनय है और उनकी पूर्ति होनेपर शास्त्राध्ययनके लिए प्रयत्न करना ज्ञानाचार है ॥६८।।
चारित्रविनयको कहते हैं
इन्द्रियोंके रुचिकर विषयोंमें रागको और अरुचिकर विषयोंमें द्वेषको त्याग कर, उत्पन्न हुए क्रोध, मान, माया और लोभका छेदन करके, समितियों में बारम्बार उत्साह करके, शुभ मन-वचन-कायकी प्रवृत्तियोंमें आदर रखते हुए तथा व्रतोंकी सामान्य और विशेष भावनाओंके द्वारा अहिंसा आदि व्रतोंको निर्मल करता हुआ पुण्यात्मा साधु स्वर्ग और मोक्षलक्ष्मीकी पोषक चारित्र विनयको करता है ॥६९।।
विशेषार्थ-जिनसे चारित्रकी विराधना होती है या चारित्रको क्षति पहुँचती है उन सबको दूर करके चारित्रको निर्मल करना चारित्रकी विनय है। इन्द्रियोंके विषयोंको लेकर जो राग-द्वेष उत्पन्न होता है उसीसे क्रोधादि कषाय उत्पन्न होती हैं। और ये सब चाखिके घातक हैं। अतः सर्वप्रथम तो इन्द्रियोंकी प्रवृत्तिपर अंकुश लगाना आवश्यक है। उसमें सफलता मिलनेपर क्रोधादि कषायोंको भी रोका जा सकता है। उनके साथ ही गुप्ति और समितियों में विशेष उद्योग करना चाहिए। और पहले जो प्रत्येक व्रतकी सामान्य और विशेष भावना बतलायी हैं उनका चिन्तन भी सतत रहना चाहिए। इस तरह ये सब प्रयत्न चारित्रकी निर्मलतामें कारण होनेसे चारित्रविनय कहा जाता है ॥६९॥
चारित्रविनय और चारित्राचारमें क्या भेद है ? यह बतलाते हैं
समिति आदिमें यत्नको चारित्रविनय कहते हैं। और समिति आदिके होनेपर जो महाव्रतोंमें यत्न किया जाता है वह चारित्राचार है ॥७०।।
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