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सप्तम अध्याय
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अथाष्टधा ज्ञानविनयं विधेयतयोपदिशति
शुद्धव्यञ्जनवाच्यतद्वयतया गुर्वादिनामाख्यया
योग्यावग्रहधारणेन समये तद्भाजि भक्त्यापि च । यत्काले विहिते कृताञ्जलिपुटस्याव्यग्रबुद्धेः शुचेः
सच्छास्त्राध्ययनं स बोधविनयः साध्योऽष्टधापीष्टदः ॥६॥ । शुद्धेत्यादि-शब्दार्थतदुभयावपरीत्येन । गुर्वादिनामाख्यया-उपाध्यायचिन्तापकाध्येतव्यनामधेयकथनेन । योग्यावग्रहधारणेन-यो यत्र सूत्रेऽध्येतव्ये तपोविशेष उक्तस्तदवलम्बनेन । समये-श्रुते । तद्भाजि-श्रुतधरे। विहिते-स्वाध्यायवेलालक्षणे। सच्छास्त्राध्ययनं-उपलक्षणाद् गुणनं व्याख्यानं शास्त्रदृष्टयाचरणं च ॥६७॥
अथ ज्ञानविनयज्ञानाचारयोविभागनिर्णयार्थमाह
सम्यग्दर्शन आदिके निर्मल करने में जो यत्न है वह विनय है और उनके निर्मल होनेपर उन्हें विशेष रूपसे अपनाना आचार है ॥६६।।
आगे आठ प्रकारकी ज्ञानविनयको पालनेका उपदेश देते हैं
शब्द, अर्थ और दोनों अर्थात् शब्दार्थकी शुद्धतापूर्वक, गुरु आदिका नाम न छिपाकर तथा जिस आगमका अध्ययन करना है उसके लिए जो विशेष तप बतलाया है उसे अपनाते हुए, आगममें तथा आगमके ज्ञाताओंमें भक्ति रखते हुए स्वाध्यायके लिए शास्त्रविहित कालमें, पीछी सहित दोनों हाथोंको जोड़कर, एकाग्रचित्तसे मन-वचन-कायकी शुद्धिपूर्वक, जो युक्तिपूर्ण परमागमका अध्ययन, चिन्तन, व्याख्यान आदि किया जाता है वह ज्ञानविनय है। उसके आठ भेद हैं जो अभ्युदय और मोक्षरूपी फलको देनेवाले हैं। मुमुक्षुको उसे अवश्य करना चाहिए ॥६॥
विशेषार्थ-सम्यग्दर्शनकी तरह सम्यग्ज्ञानके भी आठ अंग हैं-व्यंजनशुद्धि, वाच्यशुद्धि, तदुभयशुद्धि, अनिह्नव, उपधान, कालशुद्धि, विनय और बहुमान । व्यंजन अर्थात् शास्त्रवचन शुद्ध होना चाहिए, पढ़ते समय कोई अक्षर छूटना नहीं चाहिए, न अशुद्ध पढ़ना चाहिए । वाच्य अर्थात् शास्त्रका अर्थ शुद्ध करना चाहिए। तदुभयमें वचन और उसका अर्थ दोनों समग्र और शुद्ध होने चाहिए। जिस गुरुसे अध्ययन किया हो, जिनके साथ ग्रन्थका चिन्तन किया हो तथा जिस ग्रन्थका अध्ययन और चिन्तन किया हो उन सबका नाम न छिपाना अनिह्नव है । आचारांग आदि द्वादशांग और उनसे सम्बद्ध अंग बाह्य ग्रन्थोंके अध्ययनकी जो विधि शास्त्रविहित है, जिसमें कुछ तप आदि करना होता है उसके साथ श्रुतका अध्ययन उपधान है । कुछ ग्रन्थ तो ऐसे होते हैं जिनका स्वाध्याय कभी भी किया जाता है किन्तु परमागमके अध्ययनके लिए स्वाध्यायकाल नियत है। उस नियत समयपर ही स्वाध्याय करना कालशुद्धि है । मन-वचन-कायकी शुद्धि, दोनों हाथ जोड़ना आदि विनय है, जिनागममें और उसके धारकोंमें श्रद्धा भक्ति होना बहुमान है। इस तरह आठ अंग सहित सम्यग्ज्ञानकी आराधना करनेसे स्वर्ग और मोक्षको प्राप्ति होती है ।।६७।।
आगे ज्ञानविनय और ज्ञानाचारमें क्या भेद है ? यह बतलाते हैं
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