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________________ सप्तम अध्याय ४९५ अथ बाह्यतपसः फलमाह कर्माङ्गतेजोरागाशाहानिध्यानादिसंयमाः । दुःखक्षमासुखासङ्गब्रह्मोद्योताश्च तत्फलम् ॥७॥ कर्माङ्गतेजोहानिः-कर्मणां ज्ञानावरणादीनामङ्गतेजसश्च देहदीप्तेहानिरपकर्षः । अथवा कर्माङ्गाणां हिंसादीनां तेजसश्च शुक्रस्य हानिरिति ग्राह्यम् । ध्यानादि-आदिशब्दात् स्वाध्यायारोग्य-मार्गप्रभावना-कषायमदमथन-परप्रत्ययकरण-दयाद्युपकारतीयतनस्थापनादयो ग्राह्याः । उक्तं च "विदितार्थशक्तिचरितं कायन्द्रियपापशोषकं परमम् । जातिजरामरणहरं सुनाकमोक्षाओं (-यं सूतपः) ।'[ ]॥७॥ बाह्यस्तपोभिः कायस्य कर्शनादक्षमर्दने। छिन्नबाहो भट इव विक्रामति कियन्मनः ॥८॥ (तपस्यता ) भोजनादिकं तथा प्रयोक्तव्यं यथा प्रमादो न विजृम्भत इति शिक्षार्थमाह शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनं तदस्य यस्येत् स्थितयेऽशनादिना । तथा यथाक्षाणि वशे स्युरुत्पथं न वानुधावन्त्यनुबद्धतृड्वशात् ॥९॥ अनशनादिना-भोजनशयनावस्थादिना । उत्पथं-निषिद्धाचरणम् । अनुबद्धतृड्वशात्-अनादिसम्बद्धतृष्णापारतन्त्र्यात् । उक्तं च 'वशे यथा स्युरक्षाणि नोतधावन्त्यनूत्पथम् । तथा प्रयतितव्यं स्यावृत्तिमाश्रित्य मध्यमाम् ॥' [ ] ॥९॥ mune बाह्य तपका फल अनशन आदि करनेसे ज्ञानावरण आदि कर्मोंकी, शरीरके तेजकी, रागद्वेषकी और विषयोंकी आशाकी हानि होती है, उसमें कमी आती है, एकाग्रचिन्तानिरोध रूप शुभध्यान आदि और संयम होते हैं, दुःखको सहनेकी शक्ति आती है, सुखमें आसक्ति नहीं होती, आगमकी प्रभावना होती है अथवा ब्रह्मचर्यमें निर्मलता आती है। ये सब बाह्य तपके फल हैं ॥७॥ विशेषार्थ-ध्यानादिमें आदि शब्दसे स्वाध्याय, आरोग्य, मार्ग प्रभावना, कषाय, मद आदिका घटना, दया, दूसरोंका विश्वास प्राप्त होना आदि लेना चाहिए । कहा है-'सम्यक् तपका प्रयोजन, शक्ति और आचरण सर्वत्र प्रसिद्ध है। यह तप शरीर इन्द्रिय और पापका परम शोषक है; जन्म, जरा और मरणको हरनेवाला है तथा स्वर्ग और मोक्षका आश्रय है।' आगे कहते हैं कि बाह्य तप परम्परासे मनको जीतनेका कारण है जैसे घोड़ेके मर जानेपर शूरवीरका भी शौर्य मन्द पड़ जाता है वैसे ही बाह्य तपोंके द्वारा शरीरके कृश होनेसे तथा इन्द्रियोंके मानका मर्दन होनेपर मन कहाँ तक पराक्रम कर सकता है क्योंकि इन्द्रियाँ मनके घोडेके समान हैं ।।८।। ___आगे शिक्षा देते हैं कि तप करते हुए भोजन आदि इस प्रकार करना चाहिए जिससे प्रमाद बढ़ने न पावे आगममें कहा है कि शरीर रत्नत्रयरूपी धर्मका मुख्य कारण है । इसलिए भोजन-पान आदिके द्वारा इस शरीरकी स्थितिके लिए इस प्रकारका प्रयत्न करना चाहिए जिससे इन्द्रियाँ वशमें रहें और अनादिकालसे सम्बद्ध तृष्णाके वशीभूत होकर कुमार्गकी ओर न जावें ॥९॥ १. अतोऽग्रे लिपिकारेणाष्टमो श्लोको दृष्टिदोषतो विस्मृत इति प्रतिभाति । Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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