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________________ १५ ४९६ धर्मामृत ( अनगार) अथेष्टमृष्टाद्याहारोपयोगे दोषमाह इष्टमृष्टोत्कटरसैराहारैरुद्भटीकृताः । यथेष्टमिन्द्रियभटा भ्रमयन्ति बहिर्मनः ॥१०॥ बहिः-बाह्यार्थेषु । उक्तं च 'न केवलमयं कायः कर्शनीयो मुमुक्षुभिः । नाप्युत्कटरसैः पोष्यो मृष्टैरिष्टैश्च वल्भनैः ॥' [ ] ॥१०॥ अथानशनं तपः सभेदं लक्षयति चतुर्थाद्यर्धवर्षान्त उपवासोऽथवाऽऽमृतेः। सकृद्भुक्तिश्च मुक्त्यर्थ तपोऽनशनमिष्यते ॥११॥ चतुर्थादीत्यादि-अहोरात्रमध्ये किल द्वे भक्तबेले । तत्रैकस्यां भोजनमेकस्यां च तत्त्यागः । एकभक्तं-धारणकदिने पारणकदिने चैकभक्तमिति द्वयोर्भक्तवेलयो भोजनत्यागो द्वयोश्चोपवासदिने तत्त्याग इति १२ चतस्रसु भक्तवेलासु चतुर्विधाहारपरिहारश्चतुर्थ इति रूढः । एकोपवास इत्यर्थः । एवं षट सु भक्तवेलासु भोजनत्यायः षष्ठो वा(द्वौ) उपवासौ। अष्टासु अष्टमस्त्रय उपवासाः । दशसु दशमश्चत्वार उपवासाः । द्वादशसु द्वादशः पञ्चोपवासाः । एवं चतुर्थ आदिर्यस्य षष्ठाद्युपवासस्य चतुर्थादिः । अर्धवर्ष षण्मोसाः । तद्विषयत्वादुपवासोऽप्यर्धवर्षमुच्यते । अर्धवर्ष षण्मासोपवासोऽन्तःपर्यन्तो यस्य सोऽर्धवर्षान्तः । चतुर्थादिश्चासावर्धवर्षान्तश्च चतुर्थाद्यर्धवर्षान्त उपवासः क्षपणं सकृद्भुक्तिश्चैकभक्तम् । इत्येवमवधृतकालमनशनं तप इष्यते । यः पुनरामृतेमरणं यावदुपवासस्तदनवधृतकालम् । इत्यनशनं तपो द्विधाऽत्र सूत्रितं प्रतिपत्तव्यम् । उक्तं च । अपनेको रुचिकर स्वादिष्ट आहारके दोष कहते हैं इन इन्द्रियरूपी वीरोंको यदि इष्ट, मिष्ट और अत्यन्त स्वादिष्ट आहारसे अत्यधिक शक्तिशाली बना दिया जाता है तो ये मनको बाह्य पदार्थों में अपनी इच्छानुसार भ्रमण कराती हैं ॥१०॥ विशेषार्थ-उक्त समस्त कथनका सारांश यही है कि भोजनका और इन्द्रियों का खास सम्बन्ध है अतः साधुका भोजन इतना सात्त्विक होना चाहिए जिससे शरीररूपी गाड़ी तो चलती रहे किन्तु इन्द्रियाँ बलवान् न हो सकें। अतः कहा है-'मध्यम मार्गको अपनाकर जिससे इन्द्रियाँ वशमें हों और कुमार्गकी ओर न जायें ऐसा प्रयत्न करना चाहिए।' तथा'ममक्षओंको न तो मात्र इस शरीरको सुखा डालना चाहिए और न मीठे रुचिकर और अति रसीले भोजनोंसे इसे पुष्ट ही करना चाहिए' ॥१०॥ आगे भेदसहित अनशन तपको कहते हैं मुक्ति अर्थात् कर्मक्षयके लिए चतुर्थ उपवाससे लेकर छह मासका उपवास करना, अथवा मरणपर्यन्त उपवास करना तथा एक बार भोजन करना अनशन नामक तप माना गया है ॥११॥ विशेषार्थ-दिन-भरमें भोजनकी दो वेलाएँ होती हैं। उनमें से एकमें भोजन करना एक भक्त है। उपवाससे पहले दिनको धारणाका दिन कहते हैं और उपवास समाप्त होनेसे अगले दिनको पारणाका दिन कहते हैं। धारणा और पारणाके दिन एक बार भोजन करनेसे दो भोजन वेलाओंमें भोजनका त्याग करनेसे और उपवासके दिन दो वेला भोजनका त्याग करनेसे इस तरह चार भोजन वेलाओंमें चार प्रकारके आहारके त्यागको चतुर्थ कहते हैं। अर्थात् एक उपवास । इसी तरह छह भोजन वेलाओंमें भोजनके त्यागको षष्ठ या दो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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