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________________ ४८० धर्मामृत ( अनगार) अथ क्षुत्परीषहविजयविधानार्थमाह षट्कर्मीपरमादृतेरनशनाद्याप्तकृशिम्नोऽशन स्यालाभाच्चिरमप्यरं क्षुदनले भिक्षोदिधक्षत्यसून् । कारापञ्जरनारकेषु परवान् योऽभुक्षि तीव्राः क्षुधः का तस्यात्मवतोऽद्य मे क्षुदियमित्युज्जीव्यमोजो मुहुः ॥८९॥ षट्कर्मी-षडावश्यकक्रियाः । दिधिक्षति-दग्धं प्रवृत्त इत्यर्थः । यद्वैद्याः 'आहारं पचति शिखी दोषानाहारजितः पचति । दोषक्षये च धातून् पचति च धातुक्षये प्राणान् ॥' [ कारा-बन्दिकुटी। मनुष्यं प्रत्येषा। शेषो तैर्यग्नै रयिको प्रति । परवान्-परायत्तः । अभुक्षिअन्वभूवमहम् । आत्मवतः-आत्मायत्तस्य । उज्ज्जीव्यं-उद्दीप्यम् । ओजः-उत्साहो धात्तेजो वा ।।८९॥ अथ तृष्णापरीषहतिरस्कारार्थमाहपत्रीवानियतासनोदवसितः स्नानाद्यपासी यथा लब्धाशी क्षपणाध्वपित्तकदवष्वाणज्वरोष्णादिजाम। तृष्णां निष्कुषिताम्बरीशवहनां देहेन्द्रियोन्माथिनों सन्तोषोद्धकरीरपूरितवरध्यानाम्बुपानाज्जयेत् ॥१०॥ उदवसितं-गहम। स्नानाद्यपासी-अभिषेकावगाहपरिषेकशिरोलेपाद्यपचारपरिहारी । यथा १८ लब्धाशी--यथाप्राप्ताशनव्रतः । क्षपणं-उपवासः । अध्वा-मार्गचलनम् । पित्तकृदवष्वापा:-पित्त कराहारः कट्वाललवणादिः । उष्णः-ग्रीष्मः । आदिशब्दात् मरुदेशादिः । निष्कुषिताम्बरीषदहनांनिजितभ्राष्टाग्निम् । उद्घकरीरः-माघमासिकाभिनवघट: ॥९॥ अब पहले विशेषणको स्पष्ट करनेकी भावनासे क्षुधापरीषहको जीतनेका कथन करते हैं छह आवश्यक कियाओंमें परम आदर भाव रखनेवाले और अनशन आदि तपोंको करनेसे कृशताको प्राप्त मुनिको बहुत काल तक भी भोजनके न मिलनेसे भूखकी ज्वाला यदि प्राणोंको जलाने लगे तो भिक्षुको बारम्बार इस प्रकारके विचारोंसे अपने उत्साहको बढ़ाना चाहिए कि मैंने मनुष्य पर्यायमें जेलखाने में, पक्षीपर्यायमें पीजरेमें और नारक पर्यायमें ' पराधीन होकर जो तीव्र भूखकी वेदना सही है आज स्वाधीन अवस्था में उसके सामने यह भूखकी वेदना कुछ भी नहीं है ।।८।। ___ प्यासकी परीषहका तिरस्कार करते हैं पक्षीके समान साधुजनोंका न कोई नियत स्थान है न निवास है, स्नान आदि भी वे नहीं करते । श्रावकोंसे जैसा भोजन प्राप्त है खा लेते हैं। उन्हें उपवाससे, मार्गमें चलनेसे, कडुआ, खट्टा, नमकीन आदि पित्तवर्धक आहारसे, ज्वरसे या गर्मी आदिसे उत्पन्न हुई, भाड़की आगको भी जीतनेवाली और शरीर तथा इन्द्रियोंको मथनेवाली प्यास सतावे तो सन्तोषरूपी माघ मासके नये घट में भरे हुए उत्कृष्ट ध्यानरूपी जलके पानसे जीतना चाहिए ॥२०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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