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षष्ठ अध्याय
४७९
सोढाशेषपरीषहोऽक्षतशिवोत्साहः सुदृग्वृत्तभाग
मोहांशक्षपणोल्वणीकृतबलो निस्साम्परायं स्फुरन् । शुक्लध्यानकुठारकृत्तबलवत्कर्मद्रुमूलोऽपरं
ना प्रस्फोटितपक्षरेणुखगवद्यात्युव॑मस्त्वा रजः ॥८॥ अक्षतशिवोत्साहः-अप्रमत्तसंयत इत्यर्थः । तल्लक्षणं यथा
'णदासेसपमाओ वयगुणसीलेहि मंडिओ णाणी। ____ अणुवसमओ अखवओ झाणणिलीणो हु अप्पमत्तो ॥' [ गो. जी., गा. ४६] । - सुदृग्वृत्तभाक्-क्षपकश्रेण्यारोहणोन्मुख इत्यर्थः। मोहांशेत्यादि-अपूर्वकरणादिगुणस्थानवर्तीत्यर्थः । निःसांपरायं स्फूरन-लोभाभावेन द्योतमानः क्षीणमोह इत्यर्थः । शक्लध्यानं-एकत्ववितर्कवीचारास्यमत्र । बलवकर्माणि-ज्ञानदर्शनावरणान्तरायसंज्ञानि । अपरं-वेद्यायुर्नामगोत्ररूपमघातिकर्म । ना-द्रव्यतः पुमानेव । अस्त्वा-क्षिप्त्वा । रजोरेणुरिव-स्वरूपोपघातपरिहारेणवोपश्लेषावस्थानात् ॥८८॥
जिसने सब परीषहोंको सहन करनेकी क्षमता प्राप्त की है, अर्थात् जो सब परीषहोंसे अभिभूत नहीं होता, जिसका मोक्षके प्रति उत्साह प्रतिक्षण बढ़ता हुआ है, जो क्षायिक सम्यक्त्व और सामायिक आदि चारित्रमें-से किसी एक चारित्रका आराधक है, चारित्र मोह के एकदेशका क्षय करनेसे जिसका बल बढ़ गया है, जो लोभका अभाव हो जानेसे प्रकाशमान है, जिसने शुक्लध्यानरूपी कुठारसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय जैसे बलवान् घातिकर्मरूपी वृक्षकी जड़को काट दिया है, ऐसा पुरुष ही वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र नामक अघाति कर्मरूपी रजको दूर करके जिसने अपने पंखोंपर पड़ी हुई धूलको झाड़ दिया है उस पक्षीकी तरह ऊपर लोकके अग्रभागमें जाता है ।।८८।।
विशेषार्थ-पहले दो विशेषणोंसे यहाँ अप्रमत्त संयत नामक सातवें गुणस्थानवर्ती मुनिका ग्रहण किया है। उसका लक्षण इस प्रकार है-'जिसके सब प्रमाद नट हो गये हैं, जो व्रत, गुण और शीलसे शोभित है, ज्ञानी है. अभी न उपशमक है और न क्षपक है, मात्र ध्यानमें लीन है उसे अप्रमत्त संयत कहते हैं।'
सातवें गुणस्थानसे आगे उपशम श्रेणि और क्षपक श्रेणि शुरू होती है । क्षपक श्रेणिपर चढ़नेवाला ही मोक्ष जाता है। उसके क्षायिक सम्यक्त्व होता है और सामायिक या छेदोपस्थापना चारित्र होता है । अतः तीसरे विशेषणसे उस अप्रमत्त संयतको क्षपक श्रेणिपर चढ़नेके लिए उद्यत लेना चाहिए। चतुर्थ विशेषणसे अपूर्वकरण आदि गुणस्थानवर्ती लेना चाहिए क्योंकि अप्रमत्त संयत मुनि क्षपकश्रेणिपर चढ़ते हुए क्रमशः आठवें, नौवें और दसवें गणस्थान में जाता है और फिर दसवेंके अन्त में सूक्ष्म लोभ कषायका क्षय करके क्षीणमोह हो जाता है। अपूर्व करण आदि तीन गुणस्थानोंमें पृथक्त्ववितर्कवीचार नामक पहला शुक्लध्यान होता है । बारहवें क्षीण मोह नामक गुणस्थानमें एकत्ववितर्कअवीचार नामक दूसरे शुक्लध्यानके द्वारा शेष तीन घातिकर्मोंका क्षय करके जीवन्मुक्त सयोगकेवली हो जाता है।
चौदहवें गुणस्थानमें व्युपरत क्रियानिवृत्ति शुक्लध्यानके द्वारा शेष अघाति कर्मोको नष्ट करके मुक्त हो जाता है । यहाँ अघाति कर्मोंको रज अर्थात् धूल शब्दसे कहा है क्योंकि वे जीवके स्वरूपको न घातते हुए ही जीवसे सम्बद्ध रहते हैं ।।८।।
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