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________________ अथ शीतपरीषहनिग्रहोपायमाह - विष्वक्चारिमरुच्चतुष्पथमितो धृत्येकवासाः पत त्यन्वङ्गं निशि काष्ठदाहिनि हिमे भावांस्तदुच्छेदिनः । अध्यायन्नधियन्नधोगति हिमान्यतर्दुरन्तास्तपो अथोष्णपरिषहपरिसहनमाह षष्ठ अध्याय बहिस्तप्तनिजात्मगर्भगृहसंचारी मुनिर्मोदते ॥९१॥ अन्वङ्गं—अङ्गमङ्गं प्रति । तदुच्छेदिनः – पूर्वानुभूतान् शीतापनोदिनो गर्भगृहदी साङ्गार-गन्ध-तैलकुङ्कुमादीन् । अधोगतिहिमान्यतः -- नरक महाशीतदुःखानि । दुरन्ताः - चिरकालभावित्वात् । बहि: अग्निः ॥९१॥ अथ दंशमशकसह नमाह - इति चतसृषु भूषु पञ्चम्याच त्रिषु चतुर्भागेषूष्णनरकाणि ८२२५०००। शीतनरकाणि शेषाणि १७५००० । उष्णसाट् - उष्णं सहते विच् क्विपि प्राग्दीर्घः स्यात् ॥९२॥ ४८१ अनियतविहृतिर्वनं तदात्वज्वलदनलान्तमितः प्रवृद्धशोषः । तपतपनकरालिताध्वखिन्नः स्मृतनरकोष्णमहातिरुष्णसाट् स्यात् ॥९२॥ तदात्वज्वलदनलान्तं - प्रवेशक्षण एवं दीप्यमानोऽग्निः पर्यन्तेषु यस्य । शोषैः - सौम्यधातुक्षयो १२ मुखशोषश्च । तपतपनः - ग्रीष्मादित्यः । स्मृतेत्यादि - नरकेष्वत्युष्णशीते यथा' षष्ठसप्तमयोः शीतं शीतोष्णं पञ्चमे स्मृतम् । चतुष्वत्युष्णमाद्येषु नरकेष्विति भूगुणाः ॥ ' [ वरांगच ५।२० ] दंशादिदंशककृतां बाधामघजिघांसया । निःक्षोभं सहतो दंशमशकोर्मीक्षमा मुनेः ||९३॥ दंशादि - आदिशब्दान्मशक-मक्षिका पिशुक-पुत्तिका मत्कुण-कीट-पिपीलिका- वृश्चिकादयो 'काकेभ्यो रक्ष्यतां सर्पिः' इत्यादिवत् । दंशकप्राण्युपलक्षणार्थत्वात् दंशमशकोभयग्रहणस्य ॥ ९३॥ Jain Education International आगे शीत परीषहको जीतनेका उपाय कहते हैं जहाँ चारों ओरसे हवा बहती है ऐसे चौराहेपर मुनि स्थित हैं, केवल सन्तोषरूपी वस्त्र धारण किये हुए हैं, रातका समय है, काष्ठको भी जला डालनेवाला हिम अंग अंगपर गिर रहा है । फिर भी शीतको दूर करनेवाले पूर्वानुभूत अग्नि, गर्म वस्त्र आदिका स्मरण भी नहीं करते । चिरकाल तक नरक में भोगी हुई शीतकी वेदनाका स्मरण करते हैं और तपरूपी अग्निसे तप्त अपने आत्मारूपी गृहमें निवास करते हुए आनन्दका अनुभव करते हैं ||११|| उष्णपरीषहके सहनका कथन करते हैं— जैसे अनियत बिहारी और ग्रीष्मकालके सूर्यसे तपते हुए मार्ग में चलनेसे खिन्न साधु ही वनमें प्रवेश करते हैं वैसे ही वनमें आग लग जाती है, मुख सूख गया है । ऐसे साधु कोंमें उष्णताकी महावेदनाका स्मरण करते हुए उष्णपरीषहको सहते हैं ||१२|| T दंशमशकपरीषह के सहनका कथन करते हैं डाँस, मच्छर, मक्खी, पिस्सू, खटमल, चींटी, बिच्छू आदि जितने डँसनेवाले क्षुद्र जन्तु हैं उनके काटने की पीड़ाको अशुभ कर्मके उदयको नष्ट करने की इच्छासे निश्चल चित्त होकर सहनेवाले मुनिके दर्शमशकपरीषह सहन होता है ॥९३॥ ६१ For Private & Personal Use Only ३ ६ ९ ग्राह्याः । २१ १५ १८ www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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