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________________ ४७४ धर्मामृत ( अनगार) __ लोकालोके-भव्यजनान्तर्दृष्टौ चक्रवालगिरी च । तमः-मिथ्यात्वमन्धकारश्च । धर्मान्तराणांवेदाधुक्तधर्माणाम् । स्वाख्यातः-सम्यगुक्तः। व्यवहारनिश्चयाभ्यां व्यवस्थापित इत्यर्थः । परमविशद३ ख्यातिभिः-उत्कृष्टाशेषविशेषस्फुटप्रकाशननिष्ठज्ञानैः सर्वरित्यर्थः । ख्यातु-प्रकटीभवतु । धर्म:चतुर्दशगुणस्थानानां गत्यादिषु चतुर्दशमार्गणास्थानेषु स्वतत्त्वविचारणालक्षणो वस्तुयाथात्म्यरूपो वा ॥८॥ अथाहिंसकलक्षणस्य धर्मस्याक्षयसुखफलत्वं सुदुर्लभत्वं समग्रशब्दब्रह्मप्राणत्वं च प्रकाशयन्नाहसुखमचलमहिसालक्षणादेव धर्माद भवति विधिरशेषोऽप्यस्य शेषोऽनुकल्पः । इह भवगहनेऽसावेव दूरं दुरापः प्रवचनवचनानां जीवितं चायमेव ॥८॥ विधिः-सत्यवचनादिः । अनुकल्प:-अनुगतं द्रव्यभावाभ्यामहिंसकत्वं कल्पयति समर्थयति । तदनयायीत्यर्थः ॥८॥ उसके असत्य बोलनेका कोई कारण नहीं है। वह धर्म निश्चय और व्यवहार रूपसे कहा जाता है, निश्चयसे वस्तुका जो स्वभाव है वही धर्म है। जैसे आत्माका चैतन्य स्वभाव ही उसका धर्म है। किन्तु संसार अवस्थामें वह चैतन्य-स्वभाव तिरोहित होकर गति इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओंमें चौदह गुणस्थानोंके द्वारा विभाजित होकर नाना रूप हो गया है। यद्यपि द्रव्य दृष्टिसे वह एक ही है। इसलिए चौदह मागणा-स्थानोंमें चौदह गुणस्थानों के द्वारा जो उस स्वतत्त्वका विचार किया जाता है वह भी धर्म ही है। उसके बिना विविध अवस्थाओंमें जीवतत्वका परिज्ञान नहीं हो सकता। इसीसे भगवान् जिनेन्द्रदेवने जो धर्मोपदेश दिया है वह व्यवहार और निश्चयसे व्यवस्थापित है। इत्यादि रूपसे धर्मका चिन्तन करना धर्मानुप्रेक्षा है ।।८०॥ __आगे कहते हैं कि धर्मका एकमात्र लक्षण अहिंसा है । इस अहिंसा धर्मका फल अविनाशी सुख है, किन्तु यह धर्म दुर्लभ है और समग्र परमागमका प्राण है धर्मका लक्षण अहिंसा है। अहिंसा धर्मसे ही अविनाशी सखकी प्राप्ति होती है। बाकीकी सभी विधि इसीके समर्थनके लिए है। इस संसाररूपी घोर वनमें यह अहिंसारूप धर्म ही अत्यन्त दुर्लभ है । यही सिद्धान्तके वाक्योंका प्राण है ।।८१॥ विशेषार्थ-जिनागममें कहा है-राग आदिका उत्पन्न न होना ही अहिंसा है और उनका उत्पन्न होना हिंसा है। यह समस्त जिनागमका सार है। अहिंसाका यह स्वरूप बहुत ऊँचा है । लोकमें जो किसीके प्राण लेने या दुखानेको हिंसा और ऐसा न करनेको अहिंसा कहा जाता है वह तो उसका बहुत स्थूल रूप है। यथार्थमें तो जिन विकल्पोंसे आत्माके स्वभावका घात होता है वे सभी विकल्प हिंसा हैं और उन विकल्पोंसे शून्य निर्विकल्प अवस्था अहिंसा है । उस अवस्थामें पहुँचनेपर ही सच्चा स्थायी आत्मिक सुख मिलता है। यद्यपि उस अहिंसा तक पहुँचना अत्यन्त कठिन है। किन्तु जिनागमका सार यह अहिंसा ही है। आगममें अन्य जितने भी व्रतादि कहे हैं वे सब इस अहिंसाके ही पोषणके लिए कहे हैं। इसीसे जिस सत्य वचनसे दूसरेके प्राणोंका घात होता हो, उस सत्य वचनको भी हिंसा कहा है । ऐसा विचार करनेसे सदा धर्मसे अनुराग बना रहता है। इस प्रकार धर्मानुप्रेक्षाका कथन समाप्त होता है ।।८१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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