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________________ षष्ठ अध्याय ४७३ उत्सारयेयम्-दूरीकुर्यामहम् । प्रज्ञापराध-प्रमादाचरणम् । उक्तं च 'ज्ञातमप्यात्मनस्तत्त्वं विविक्तं भावयन्नपि । पूर्वविभ्रमसंस्काराद् भ्रान्ति भूयोऽपि गच्छति ॥ [ समाधि तन्त्र ४५ ] क्लेशा:-अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः। संक्लेशा:-सुखदुःखोपभोगविकल्पाः। विन्देयलभेय अहम् । अनुप्राणना-पुनरुज्जीवनी । कुतस्त्या–कुतो भवा न कुतश्चित् प्राप्यत इत्यर्थः ॥७९॥ अथ केवलिप्रज्ञप्तत्रलोक्यैकमङ्गललोकोत्तमस्य धर्मस्याविर्भावमाशंसति लोकालोके रविरिव करैरुल्लसन् सत्क्षमाद्यैः खद्योतानामिव घनतमोद्योतिनां यः प्रभावम् । दोषोच्छेदप्रथितमहिमा हन्ति धर्मान्तराणां स व्याख्यातः परमविशदख्यातिभिः ख्यातु धर्मः ॥८॥ आत्मतत्त्वको जानकर भी और शरीरादिसे भिन्न उसका पुनः-पुनः चिन्तन करके भी पहले मिथ्या संस्कारोंसे पुनः भ्रममें पड़ जाता है । और यह क्षण-भरका प्रमाद इन्द्रियोंके चक्करमें डालकर मनुष्यको मार्गभ्रष्ट कर देता है। फलतः उस क्षणमें बँधे हुए कर्म जब उदयमें आते हैं तो मनुष्य क्लेश और संक्लेशसे पीड़ित हो उठता है। राग-द्वेषरूप भावोंको क्लेश कहते हैं और सुख-दुःखको भोगनेके विकल्पोंको संक्लेश कहते हैं। फिर तो मनुष्यके लिए बोधिकी प्राप्तिकी बात तो दूर उसका नाम भी सुनना नसीब नहीं होता। इस बोधिकी दर्लभताका चित्रण करते हुए तत्त्वार्थवार्तिक ९।७।९ में कहा है-एक निगोदिया जीवके शरीरमें सिद्ध राशिसे अनन्त गुणे जीवोंका निवास है। इस तरह समस्त लोक स्थावरकायिक जीवोंसे भरा हुआ है। अतः त्रसपना, पंचेन्द्रियपना, मनुष्यपर्याय, उत्तम देश, उत्तम कुल, इन्द्रिय सौष्ठव, आरोग्य और समीचीनधर्म ये उत्तरोत्तर बड़े कष्टसे मिलते हैं । इस तरह बड़े कष्टसे मिलनेवाले धर्मको पाकर भी विषयोंसे विरक्ति होना दुर्लभ है। विषयोंसे विरक्ति होनेपर तपकी भावना, धर्मको प्रभावना, समाधिपूर्वक मरण दुर्लभ है। इस सबके होनेपर ही बोधिकी प्राप्ति सफल है ऐसा चिन्तन करना बोधि दुर्लभ अनुप्रेक्षा है ।।७।। आगे केवलीके द्वारा कहे गये, तीनों लोकोंमें अद्वितीय मंगलरूप तथा सब लोकमें उत्तम धर्म के प्रकट होनेकी आशा करते हैं अपनी किरणोंसे सूर्यके समान उत्तम क्षमा आदिके साथ भव्य जीवोंकी अन्तर्दृष्टिमें प्रकाशमान होता हुआ जो गाढ़े अन्धकारमें चमकनेवाले जुगुनुओंकी तरह गहन मिथ्यात्वमें चमकनेवाले अन्य धर्मों के प्रभावको नष्ट करता है, रागादि दोषोंका विनाश करनेके कारण जिसकी महिमा प्रसिद्ध है तथा जो समस्त विशेषोंको स्पष्ट प्रकाशन करनेवाले ज्ञानसे युक्त सर्वज्ञ देवके द्वारा व्यवहार और निश्चयसे कहा गया है वह वस्तुस्वभावरूप धर्म या चौदह मार्गणास्थानों में चौदह गुणस्थानोंका विचाररूप धर्म प्रकट होवे ॥८॥ विशेषार्थ-सच्चा धर्म वही है जो राग-द्वेषसे रहित पूर्णज्ञानी सर्वज्ञके द्वारा कहा गया है । क्योंकि मनुष्य अज्ञानसे या राग-द्वेषसे असत्य बोलता है। जिसमें ये दोष नहीं है १. जानन्नप्या-स. तं.। २. -बना भ. कु. च.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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