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________________ १२ ४७२ धर्मामृत ( अनगार ) एकेन, खैरिति वचनपरिणामेन, खेन-इन्द्रियेण स्पर्शनेन इत्यर्थः । एवमत्तरत्रापि नैयायिकसमयः । दीर्घ-चिरकालम् । घनतमसि-निविडमोहे निगोदादिस्थाने जातोऽहमिति संबन्धः । परं-परद्रब्यं है स्पर्शप्रधानम् । स्वानभिज्ञो-आत्मज्ञानपराङ्मुखः । अभिजानन्-आभिमुख्येन परिछिन्दत् । द्वाभ्यांस्पर्शनरसनाभ्याम् । परं-स्पर्शरसप्रधानम् । स्वानभिज्ञोऽभिजानन् कृम्यादिस्थाने दीर्घ जातोऽस्मीति संबन्धः । एवं यथास्वमुत्तरत्रापि । त्रिभिः-स्पर्शनरसनघ्राणः । चतुभिः-स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुभिः । अपि मनसामनःषष्ठैः पञ्चभिरिन्द्रियैरित्यर्थः । अनेहसि-काले। ईदृक्-सुजात्यादिसंपन्नम् । लब्धं (आप)लब्धवानहम् । इह-बोधौ ॥७८॥ अथ दुर्लभबोधिः (-धेः) प्रमादात् क्षणमपि प्रच्युतायास्तत्क्षणबद्धकर्मविपक्किमक्लेशसंक्लेशवेदनावशस्य ९ पुनर्दुर्लभतरत्वं चिन्तयति दुष्प्रापं प्राप्य रत्नत्रयमखिलजगत्सारमुत्सारयेयं, नोचेत् प्रज्ञापराधं क्षणमपि तदरं विप्रलब्धोऽक्षधूर्तेः । तत्किचित्कर्म कुर्यां यदनुभवभवत्क्लेशसंक्लेशसंविद् बोधेविन्देय वार्तामपि न पुनरनुप्राणनास्याः कुतस्त्याः ॥७९॥ गन्ध-रूप और शब्द प्रधान परद्रव्यको जानता हुआ दीर्घकाल तक बार-बार असंज्ञी पंचेन्द्रियोंमें जन्मा । कभी मनके साथ पाँच इन्द्रियोंके द्वारा स्पर्श, रस, गन्ध, रूप, शब्द तथा श्रुतके विषयभूत परद्रव्यको जानता हुआ बार-बार दीर्घकाल संज्ञी पंचेन्द्रियोंमें जन्मा । किन्तु इस प्रकारके जाति-कुल आदिसे सम्पन्न मनुष्यभवको पाकर मैंने कभी भी रत्नत्रयकी प्राप्तिरूप बोधिको नहीं पाया । इसलिए जैसे कोई समुद्र के मध्यमें अत्यन्त दुर्लभ रत्नको पाकर उसके लिए अत्यन्त प्रयत्नशील होता है वैसे ही संसारमें अत्यन्त दुर्लभ बोधिको पाकर मैं उसीके लिए प्रयत्नशील होता हूँ॥७८॥ विशेषार्थ-सारांश यह है कि संसार-भ्रमणका एकमात्र कारण अपने स्वरूपको न जानना है। आत्मज्ञान ही सम्यग् बोधि है। नरभव पाकर भी उसका प्राप्त होना दुर्लभ है अतः उसीके लिए प्रयत्नशील होने की आवश्यकता है। वह प्राप्त होने से रत्नत्रयकी प्राप्ति सुनिश्चित है। किन्तु उसके अभावमें रत्नत्रय हो नहीं सकता ।।७८॥ ___ यदि प्राप्त दुर्लभ बोधि प्रमादवश एक क्षणके लिए भी छूट जाये तो उसी क्षणमें बँधे हुए कर्मोंका उदय आनेपर कष्टोंकी वेदनासे पीड़ित मेरे लिए बोधिकी प्राप्ति दुर्लभसे दुर्लभतर हो जाती है, ऐसा विचार करते हैं सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय समस्त लोकमें उत्तम है। यह बड़े कष्टसे प्राप्त होता है। इसे प्राप्त करके एक क्षणके लिए भी यदि मैं अपने प्रमादपूर्ण आच. रणको दूर न करूँ तो शीघ्र ही इन्द्रियरूपी धूर्तोंसे ठगा जाकर में कुछ ऐसा दारुण कर्म करूँगा जिस कर्मके उदयसे होनेवाले क्लेश और संक्लेशको भोगनेवाले मेरे लिए बोधिकी बात भी दुर्लभ है फिर उसकी पुनः प्राप्तिकी तो बात ही क्या है ? ||७९॥ विशेषार्थ-रत्नत्रयकी प्राप्ति बड़े ही सौभाग्यसे होती है। अतः उसे पाकर सतत सावधान रहनेकी जरूरत है। एक क्षणका भी प्रमाद उसे हमसे दूर कर सकता है। और प्रमादकी सम्भावना इसलिए है कि मनुष्य पुराने संस्कारोंसे भ्रममें पड़ सकता है। कहा है १. -समन्वयश्चिन्त्यः भ, कु. च.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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