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षष्ठ अध्याय
४७१
अथ सम्यग्लोकस्थितिभावनयाऽधिगतसंवेगस्य मुक्त्यर्थसामर्थ्यसमुद्भवं भावयतिलोकस्थिति मनसि भावयतो यथावद्
दुःखार्तदर्शनविजम्भितजन्मभीतेः । सद्धर्मतत्फलविलोकनरञ्जितस्य
___ साधोः समुल्लसति कापि शिवाय शक्तिः ॥७७॥ स्थितिः-इत्थंभावनियमः । सद्धर्मः-शुद्धात्मानुभूतिः । तत्फलं-परमानन्दः ॥७७॥ अथ बोधिदुर्लभत्वं प्रणिधत्ते
जातोऽकेन दोघं घनतमसि परं स्वानभिज्ञोऽभिजानन् ___ जातु द्वाभ्यां कदाचित्त्रिभिरहमसकृज्जातुचित्खैश्चतुभिः । श्रोत्रान्तैः कहिचिच्च क्वचिदपि मनसानेहसीदृङ्नरत्वं
__ प्राप्तो बोधि कदायं तदलमिह यते रत्नवज्जन्मसिन्धौ ॥७८॥ द्वीप, कालोद समुद्र तथा अर्ध पुष्कर द्वीपमें मानुषोत्तर पर्यन्त मनुष्योंका निवास है । जिस पृथिवीपर हम निवास करते हैं उस रत्नप्रभा पृथिवीके तीन भाग हैं। प्रथम खर भागमें नागकुमार आदि नौ प्रकारके भवनवासियोंका निवास है और पंक भागमें असुर कुमारोंका, राक्षसोंका आवास है। शेष व्यन्तर नीचे चित्रा और वज्रा पृथिवीकी सन्धिसे लेकर ऊपर सुमेरु पर्यन्त निवास करते हैं। इस भूमिसे ७९० योजन आकाशमें जानेपर ऊपर एक सौ दस योजन आकाशप्रदेशमें तथा तिर्यक् घनोदधिवातवलय पर्यन्त ज्योतिषी देवोंके विमान हैं। और वैमानिक देवोंके विमान ऊपर ऋजु नामक इन्द्रक विमानसे लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त हैं। नीचे प्रथम पृथिवीके अब्बहुल भागसे लेकर सातवीं पृथिवी पर्यन्त नारकियोंका निवास है । ये सभी जीव कर्मकी आगमें सदा जला करते हैं। इनका चिन्तन करनेसे साधुका मन संसारसे उद्विग्न होकर बाह्यमें लोकके अग्रभागमें स्थित मुक्तिस्थानको और अभ्यन्तरमें स्वात्मोपलब्धि रूप सिद्धिको प्राप्त करनेके लिए लालायित हो उठता है ।।७६॥
आगे कहते हैं कि जिस साधुको लोक भावनाके चिन्तनसे संवेग भावकी प्राप्ति होती है उसमें मुक्तिको प्राप्त करने की शक्ति प्रकट होती है
जो साधु अपने मनमें सम्यक् रूपसे लोककी स्थितिका बार-बार चिन्तन करता है, और दुःखोंसे पीड़ित लोगोंको देखनेसे जिसे संसारसे भय हो जाता है तथा जो शुद्धात्मानुभूति रूप समीचीन धर्म और उसका फल परमानन्द देखकर उसमें अनुरक्त होता है उस साधुमें मोक्षकी प्राप्ति के लिए कोई अलौकिक शक्ति प्रकट होती है ॥७७॥
इस प्रकार लोकानुप्रेक्षाका कथन समाप्त होता है । अब बोधिदुर्लभ भावनाका कथन करते हैं
आत्मज्ञानसे विमुख हुआ मैं इस जगत में बार-बार दीर्घ काल तक केवल एक स्पर्शन इन्द्रियके द्वारा स्पर्श प्रधान परद्रव्यको जानता हुआ मिथ्यात्वरूप गहन अन्धकारसे व्याप्त नित्यनिगोद आदिमें उत्पन्न हुआ। कभी दो इन्द्रियोंके द्वारा स्पर्श और रस प्रधान परद्रव्यको जानता हुआ बारम्बार दोइन्द्रिय कृमि आदिमें दीर्घ काल तक जन्मा। कभी तीन इन्द्रियोंके द्वारा स्पर्श, रस और गन्ध प्रधान परद्रव्यको जानता हुआ दीर्घ काल तक बार-बार चींटी आदिमें जन्मा। कभी चार इन्द्रियोंके द्वारा स्पश रस गन्ध और रूपवाले परद्रव्योंको जानता हुआ भौरा आदिमें बार-बार दीर्घकाल तक जन्मा। कभी पाँच इन्द्रियोंके द्वारा स्पर्श-रस
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