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________________ षष्ठ अध्याय ४७५ अथानित्यताद्यनुप्रेक्षाणां यां कांचिदिष्टामनुध्याय 'निरुद्धेन्द्रियमनःप्रसरस्यात्मनात्मन्यात्मनः संवेदनात् कृतकृत्यतामापन्नस्य जीवन्मुक्तिपूर्विकां परममुक्तिप्राप्तिमुपदिशति इत्येतेषु द्विषेषु प्रवचनदृगनुप्रेक्षमाणोऽवादि __ष्वद्धा यत्किचिदन्तःकरणकरणजिद्वेत्ति यः स्वं स्वयं स्वे । उच्चैरुच्चैःपदाशाधरभवविधुराम्भोधिपाराप्तिराज कार्तायः पूतकोतिः प्रतपति स परैः स्वैर्गुणैर्लोकमूनि ॥८२॥ द्विषेषु-द्वादशसु । अनुप्रेक्ष्यमाणः-भावयन् । अध्रुवादिषु-अनित्याशरणसंसारैकत्वान्यत्वाशुच्यास्रवसंवरनिर्जरालोकबोधिदुर्लभधर्मस्वाख्यातत्वेषु। उच्चैरुच्चैःपदेषु-उन्नतोन्नतस्थानेषु नृपमहद्धिकदेवचक्रिसुरेन्द्राहमिन्द्रगणधरतीर्थकरत्वलक्षणेषु। आशा-प्राप्त्यभिलाषः, तां धरति तया वा अधरो निन्द्यः शुभाशुभकर्मनिबन्धनत्वात् । कीार्था (कार्ता )-कृतकृत्यता । उक्तं च 'सर्वविवर्तोत्तीर्णं यदा स चैतन्यमचलमाप्नोति । भवति तदा कृतकृत्यः सम्यक् पुरुषार्थसिद्धिमापन्नः॥' [ पुरुषार्थ, श्लो. १३ ] कीर्तिः-वाक्यशःस्तुति म वा । स्वैर्गुणैः-सम्यक्त्वादिभिरष्टभिः सिद्धगुणः । अथ 'अदुःखभावितं ज्ञानं हीयते दुःखसन्निधौ। तस्माद् यथाबलं दुःखैरात्मानं भावयेन्मुनिः ॥' [ समाधितं. १०२ ] ॥८२॥ आगे कहते हैं कि इन अनित्यता आदि अनुप्रेक्षाओंमें-से अपनेको प्रिय जिस किसी भी अनुप्रेक्षाका ध्यान करके जो साधु अपनी इन्द्रियों और मनके प्रसारको रोकता है तथा आत्माके द्वारा आत्मामें आत्माका अनुभवन करके कृतकृत्य अवस्थाको प्राप्त करता है उसको प्रथम जीवन्मुक्ति, पश्चात् परममुक्ति प्राप्त होती है परमागम ही जिसके नेत्र हैं ऐसा जो मुमुक्षु अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधि दुर्लभ और धर्मस्वाख्यात तत्त्व इन बारह अनुप्रेक्षाओंमें-से यथारुचि किसी भी अनुप्रेक्षाका तत्त्वतः चिन्तन करता हुआ मन और को वशमें करके आत्माको आत्मामें आत्माके द्वारा जानता है वह पूतकीर्ति अर्थात पवित्र वाणी दिव्यध्वनिका धारी होकर राजा महर्द्धिक देव, चक्रवर्ती, सुरेन्द्र, अहमिन्द्र, गणधर, तीर्थंकर आदि ऊँचे-ऊँचे पदोंकी प्राप्तिकी अभिलाषाके कारण निन्दनीय संसारके दुःखसागरके पारको प्राप्त करके शोभमान कृतकृत्य होता है और लोकके मस्तकपर विराजमान होकर उत्कृष्ट आत्मिक गुणोंसे प्रदीप्त होता है ॥८२॥ विशेषार्थ-अनुप्रेक्षाओंके चिन्तनसे मन एकाग्र होता है और इन्द्रियाँ वशमें होती हैं। मनके एकाग्र होनेसे स्व-संवेदनके द्वारा आत्माकी अनुभूति होती है। उसी आत्मानुभूतिके द्वारा जीवन्मुक्तदशा और अन्त में परम मुक्ति प्राप्त होती है। उसी समय जीव कृतकृत्य कहलाता है । कहा है-जिस समय वह जीव समस्त विवोंसे रहित निश्चल चैतन्यको प्राप्त करता है, सम्यक् पुरुषार्थ मोक्षकी प्राप्ति कर लेनेसे उस समय वह कृतकृत्य होता है । ऊपर ग्रन्थकार ने संसारको दुःखका समुद्र बतलाते हुए उसे इसलिए भी निन्द्य कहा है कि उसमें इन्द्र, अहमिन्द्र तथा तीर्थंकर आदि पदोंकी अभिलाषा लगी रहती है । ये पद शुभकर्मका बन्ध किये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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