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________________ पंचम अध्याय क्षुत्पीतवीर्येण परः स्ववदार्तो दुरुद्धरः । प्राणाश्चाहारशरणा योगकाष्ठाजुषामपि ॥६३॥ पीतं - नाशितम् ॥ ६३ ॥ अथ भोजनत्यजननिमित्तान्याह - आतङ्क उपसर्गे ब्रह्मचर्यस्य गुप्तये । कायकायतपः प्राणिदयाद्यर्थंञ्च नाहरेत् ॥६४॥ आतङ्के - आकस्मिकोत्थितव्याधी मारणान्तिकपीडायाम् । गुप्तये सुष्टु निर्मलीकरणार्थम् । दयाद्यर्थं - आदिशब्देन श्रामण्यानुवृत्ति समाधिमरणादिपरिग्रहः ॥ ६४ ॥ अथ स्वास्थ्यार्थं सर्वेषणादिभिः समीक्ष्य वृत्ति कल्पयेदित्युपदिशति - द्रव्यं क्षेत्रं बलं कालं भावं वीयं समीक्ष्य च । स्वास्थ्याय वर्ततां सर्वविद्धशुद्धाशनैः सुधीः ॥६५॥ द्रव्यं - आहारादि । क्षेत्रं - भूम्येकदेशो जाङ्गलादि । तल्लक्षणं यथा - 'देशोऽल्पवारिदुनगो जाङ्गलः स्वल्परोगदः । अनूपो विपरीतोऽस्मात् समः साधारणः स्मृतः ॥ जाङ्गलं वातभूयिष्ठमनूपं तु कफोल्वणम् । साधारणं सममलं त्रिधा भूदेशमादिशेत् ॥' [ Jain Education International ४०९ 1 जिस मनुष्य की शक्ति भूखसे नष्ट हो गयी है वह अपनी तरह दुःखसे पीड़ित दूसरे मनुष्यका उद्धार नहीं कर सकता । जो योगी योगके आठ अंग यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधिकी चरम सीमापर पहुँच गये हैं उनके भी प्राणोंका शरण आहार ही है । वे भी आहारके बिना जीवित नहीं रहते, फिर योगाभ्यासियोंका तो कहना ही क्या है ? ||६३ || भोजन छोड़ने के निमित्तोंको दिखाते हैं • अचानक कोई मारणान्तिक पीड़ा होनेपर, देव आदिके द्वारा उपसर्ग किये जानेपर, ब्रह्मचर्यको निर्मल करनेके लिए, शरीरको कृश करने के लिए, तपके लिए और प्राणियोंपर दया तथा समाधिमरण आदिके लिए साधुकों भोजन नहीं करना चाहिए ||६४ || आगे स्वास्थ्य के लिए विचारपूर्वक सर्वैषणा आदिके द्वारा भोजन करनेका उपदेश देते हैं विचारपूर्वक कार्य करनेवाले साधुको द्रव्य, क्षेत्र, अपनी शारीरिक शक्ति, हेमन्त आदि छह ऋतु, भाव और स्वाभाविक शक्तिका अच्छी तरह विचार करके स्वास्थ्य के लिए सर्वाशन, विद्धाशन और शुद्धाशनके द्वारा भोजन ग्रहण करना चाहिए || ६५ || विशेषार्थ - साधुको द्रव्य आदिका विचार करके आहार ग्रहण करना चाहिए | द्रव्यसे मतलब आहारादिसे है । जो आहार साधुचर्याके योग्य हो वही ग्राह्य होता है । भूमिप्रदेशको क्षेत्र कहते हैं । भोजन क्षेत्र के अनुसार होना चाहिए। उसका लक्षण इस प्रकार है - भूदेश अर्थात् क्षेत्र तीन प्रकारका होता है- जांगल, अनूप और साधारण । जहाँ पानी, पेड़ और पहाड़ कम हों उसे जांगल कहते हैं यह स्वल्प रोगकारक होता है । अनूप जांगल विपरीत होता है । और जहाँ जल आदि न अधिक हो न कम, उसे साधारण कहते हैं । ५२ For Private & Personal Use Only ३ ६ ९ १२ १५ www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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