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धर्मामृत ( अनगार) अथाहारकरणकारणान्याह
क्षुच्छमं संयम स्वान्यवैयावृत्यमसुस्थितिम् ।
वाञ्छन्नावश्यकं ज्ञानध्यानादींश्चाहरेन्मुनिः ॥६१॥ क्षुच्छमं-क्षुद्वेदनोपशमम् । ज्ञानं-स्वाध्यायः । आदिशब्देन क्षमादयो गृह्यन्ते । उक्तं च
'वेयणवेज्जावच्चे किरियुद्वारे य संजमाए ।
तवपाणधम्मचिंता कुज्जा एदेहि आहारं ॥' [ मूला. ४७९] ॥६१॥ अथ दयाक्षमादयो बुभुक्षार्तस्य न स्युरित्युपदिशति
बुभुक्षाग्लपिताक्षाणां प्राणिस्ता कुतस्तनी।
क्षमादयः क्षुधार्तानां शक्याश्चापि तपस्विनाम् ॥६२॥ स्पष्टम् ॥६२॥ अथ क्षुधाग्लानेन वैयावृत्यं दुष्करमाहारत्राणाश्च प्राणा योगिनामपोत्युपदिशतिमुनिके आहार करनेके कारण बतलाते हैं
भूखकी वेदनाका शमन करनेके लिए, संयमकी सिद्धिके लिए, अपनी तथा दूसरोंकी सेवाके लिए, प्राण धारणके लिए तथा मुनिके छह आवश्यक कर्तव्य, ज्ञान, ध्यान आदिके लिए मुनिको आहार करना चाहिए ॥६१||
विशेषार्थ-मुनिके भोजनके छियालीस दोष सोलह अन्तराय आदि बतलानेसे भोजनकीट मनुष्योंको ऐसा लग सकता है कि इतने प्रतिबन्ध क्यों लगाये गये हैं। इसके लिए ही यह बतलाया है कि साधुके भोजन करनेके उद्देश क्या हैं। वे जिह्वा या अन्य इन्द्रियोंकी तृप्ति और शरीरकी पुष्टिके लिए भोजन नहीं करते, किन्तु संयम-ज्ञान-ध्यानकी सिद्धिके लिए भोजन करते हैं। इन सबकी सिद्धि शरीरके बिना सम्भव नहीं होती और शरीर भोजनके बिना ठहर नहीं सकता। अतः शरीरको बनाये रखनेके लिए भोजन करते हैं। यदि शरीर अत्यन्त दुर्बल हो तो साधु अपना कर्तव्य कर्म भी नहीं कर सकता। और यदि शरीर अत्यन्त पुष्ट हो तो भी धर्मका साधन सम्भव नहीं है। मूलाचारमें कहा भी है-'मेरे शरीर में युद्धादि करनेकी क्षमता प्राप्त हो इसलिए साधु भोजन नहीं करते, न आयु बढ़ानेके लिए, न स्वादके लिए, न शरीरकी पुष्टिके लिए, न शरीरकी चमक-दमकके लिए भोजन करते हैं। किन्तु ज्ञानके लिए, संयमके लिए और ध्यानके लिए ही भोजन करते हैं। यदि भोजन ही न करें तो ज्ञान-ध्यान नहीं हो सकता।
आगे कहते हैं कि भूखसे पीड़ित मनुष्यके दया-क्षमा आदि नहीं होतीं
जिनकी इन्द्रियाँ भूखसे शक्तिहीन हो गयी हैं वे अन्य प्राणियोंकी रक्षा कैसे कर सकते हैं ? जो तपस्वी भूखसे पीड़ित हैं उनके भी क्षमा आदि गुण शंकास्पद ही रहते हैं अर्थात् उनकी क्षमाशीलतामें भी सन्देह ही है। इसलिए क्षमाको वीरका भूषण कहा है ॥६२।।
आगे कहते हैं कि भूखसे पीड़ित व्यक्तिके द्वारा वैयावृत्य दुष्कर है-और योगियोंके भी प्राण आहारके बिना नहीं बचते
१. 'ण बलाउसाहणटुं ण सरीरस्सुवचयट्ठ तेजहूँ ।
णाणट्ठ संजमर्ट झाणहूँ चेव भुंजेज्जो' ।।-मूलाचार ६६६२ ।
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