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________________ ४१० धर्मामृत (अनगार) . बलं-अन्नादिजं स्वाङ्गसामर्थ्यम् । कालं-हेमन्तादिऋतुषट्कम् । तच्चर्या यथा--- 'शरद्वसन्तयो रूक्षं शीतं धर्मघनान्तयोः । अन्नपानं समासेन विपरीतमतोऽन्यदा॥' [अष्टांगहृदय ३।५७ ] तथा 'शीते वर्षासु चाद्यास्त्रीन् वसन्तेऽन्त्यान् रसान् भजेत् । स्वादुं निदाघे शरदि स्वादुतिक्तकषायकान् ॥' [ अष्टांगहृदय ३।५६ ] 'रसाः स्वाद्वाम्ललवणतिक्तोषणकषायकाः। षड्द्रव्यमाश्रितास्ते च यथापूर्वं बलावहाः॥' [अष्टांगहृदय १११४ ] भावं-श्रद्धोत्साहादिकम् । वीर्य-संहननं नैसर्गिकशक्तिरित्यर्थः । स्वास्थ्याय--आरोग्यार्थ स्वात्मन्यवस्थानार्थं च । सर्वाशनं-एषणासमितिशुद्धं भोजनम् । विद्धाशनं-गुड-तैल-घृत-दधि-दुग्ध-शाल१ नादिरहितं सौवीरशुक्लतकादिसमन्वितम् । शुद्धाशनं-पाकादवतीर्णरूपं मनागप्यन्यथा न कृतम् । उक्तं च 'सव्वेसणं च विदेसणं च सुद्धेसणं च ते कमसो।। एसण समिदिविसुद्धं णिब्वियडमवंजणं जाण ॥ [ मूलाचार ६१७० गा. ] अत्र प्रत्येकं चशब्दो असर्वेषणमविद्वेषणमशुद्धषणं चेत्येवमर्थः। कदाचिद्धि तादगपि योग्यं कदाचिच्चायोग्यमिति टीकाव्याख्यानसंग्रहार्थं समीक्ष्य चेत्ययं चशब्दः (-ब्दार्थः ) ॥६५॥ जांगल में वातका आधिक्य रहता है, अनूप देशमें कफकी प्रधानता रहती है और साधारण प्रदेशमें तीनों ही सम रहते हैं। अतः भोजनमें क्षेत्रका भी विचार आवश्यक है। कालसे मतलब छह ऋतुओंसे है। ऋतुचर्याका विधान इस प्रकार किया है-शरत् और वसन्त ऋतुमें रुक्ष तथा ग्रीष्म और वर्षा ऋतुमें शीत अन्नपान लेना चाहिए। अन्य ऋतुओंमें इससे विपरीत अन्नपान लेना चाहिए। तथा मधुर, खट्टा, लवण, कटु, चरपरा, कसैला ये छह रस हैं जो द्रव्यके आश्रयसे रहते हैं। और उत्तरोत्तर कम-कम बलवर्धक हैं। अतः शीत और वर्षा ऋतुमें आदिके तीन रसोंका और वसन्त ऋतुमें अन्तके तीन रसोंका, ग्रीष्म ऋतुमें मधुरका और शरद् ऋतुमें मधुर, तिक्त और कषाय रसका सेवन करना चाहिए। ___ एषणा समितिसे शुद्ध भोजनको सर्वाशन कहते हैं। गुड़, तेल, घी, दही, दूध, सालन आदिसे रहित और कांजी, शुद्ध तक्र आदिसे युक्त भोजनको विद्धाशन कहते हैं। जो पककर जैसा तैयार हुआ हो और किंचित् भी अन्य रूप न किया गया हो उस भोजनको शुद्धाशन कहते हैं । मूलाचारमें कहा भी है- 'एषणा समितिसे विशुद्ध भोजन सर्वेषण है। निर्विकृत अर्थात् गुड़, तेल, घी, दूध, दही, शाक आदि विकृतियोंसे रहित और कांजी-तक आदिसे युक्त भोजन विद्धाशन होता है। तथा कांजी-तक्र आदिसे रहित, बिना व्यंजनके पककर तैयार हआ जैसाका तैसा भोजन शद्धाशन है। ये तीनों ही प्रकारका भोजन खानेके योग्य है। जो भोजन सब रसोंसे युक्त है, सब व्यंजनोंसे सहित है वह कदाचित् योग्य और कदाचित् अयोग्य होता है। यह मूलाचारकी संस्कृत टीकामें कहा है । उसीके आधारसे पं. आशाधर जीने कहा है ॥६५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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