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धर्मामृत ( अनगार) अथ दायकदोषमाह
मलिनी-गभिणी-लिङ्गिन्यादिनार्या नरेण च ।
शवादिनाऽपि क्लीबेन दत्तं दायकदोषभाक् ॥३४॥ मलिनी-रजस्वला । गर्भिणी-गुरुभारा । शवः-मृतकं स्मशाने प्रक्षिप्यागतो मृतकसूतकयुक्तो वा। आदिशब्दाद व्याधितादिः । उक्तं च
'सूती शौण्डी तथा रोगी शवः षण्ढः पिशाचवान् । पतितोच्चारनग्नाश्च रक्ता वेश्या च लिङ्गिनी ॥ वान्ताऽभ्यक्ताङ्गिका चातिबाला वृद्धा च गर्भिणी। अदन्त्यन्धा निषण्णा च नीचोच्चस्था च सान्तरा ॥
विशेषार्थ-मूलाचारमें इस दोषका नाम संव्यवहरण है । संव्यवहरणका अर्थ टीकाकारने किया है-जल्दीसे व्यवहार करके या जल्दीसे आहरण करके । इसीपर से इस दोषका नाम संव्यवहरण ही उचित प्रतीत होता है। श्वे. पिण्डनियुक्तिमें भी इसका नाम संहरण है। पं. आशाधरजीने साधारण नाम किसी अन्य आधारसे दिया है। किन्तु वह उचित प्रतीत नहीं होता क्योंकि इस दोषका जो स्वरूप है वह साधारण शब्दसे व्यक्त नहीं होता। संव्यवहरण या संहरण शब्दसे ही व्यक्त होता है। अनगार धर्मामृतकी पं. आशाधरजीकी टीकामें इस प्रकरणमें जो प्रमाण उद्धृत किये हैं वे अधिकतर संस्कृत श्लोक हैं। वे श्लोक किस ग्रन्थके है यह पता नहीं चल सका है फिर भी मूलाचारकी गाथाओंके साथ तुलना करनेसे यह स्पष्ट हो जाता है कि वे श्लोक मूलाचारकी गाथाओंपर-से ही रचे गये हैं। उसीमें इस दोषका नाम साधारण लिखा है। किन्तु उसके लक्षणमें जो 'संभ्रम आहरण' पद प्रयुक्त हुआ है उसीसे इस दोषका नाम संव्यवहरण सिद्ध होता है साधारण नहीं ॥३३॥
आगे दायक दोषको कहते हैं
रजस्वला, गर्भिणी, आर्यिका आदि स्त्रीके द्वारा तथा मृतकको श्मशान पहुँचाकर आये हए या मृतकके सूतकवाले मनुष्यके द्वारा और नपंसकके द्वारा दिया गया दान दायक दोपसे युक्त होता है ॥३४॥
विशेषार्थ-मूलाचौरमें लिखा है-'जिसके प्रसव हुआ है, जो मद्यपायी है, रोगी है, मृतकको श्मशान पहुँचाकर आया है, या मृतकके सूतकवाला है, नपुंसक है, भूतसे ग्रस्त है,
१. 'संववहरणं किच्चा पदामिदि चेलभायणा दीणं ।
असमिक्खिय जं देयं संववहरणो हवदि दोषो' ॥-मूला. ६१४८ २. सूदी सुंडी रोगी मदय-णवंसय-पिसाय-णग्गो य ।
उच्चार-पडिद-वंत-रुहिर-वेसी समणी अंगमक्खीया ।। अतिवाला अतिवुडढा घासत्ती गम्भिणी य अंधलिया। अंतरिदा व णिसण्णा उच्चत्था अहव णीचत्था ॥ पूयण पज्जलणं वा सारण पच्छादणं च विज्झवणं । किच्चा तहाग्गीकज्ज णिवादं घट्टणं चावि ।। लेवण मज्जणकम्मं पियमाणं दारयं च णिक्खविय । एवं विहादिया पुण दाणं जदि दिति दायगा दोसा॥-मूलाचार ४९-५२ गा.।
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