SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 456
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पंचम अध्याय फत्कारं ज्वालनं चैव सारणं छादनं तथा। विध्यापनाग्निकार्ये च कृत्वा निश्च्यावघट्टने ॥ लेपनं मार्जनं त्यक्त्वा स्तनलग्नं शिशुं तथा। दीयमाने हि दानेऽस्ति दोषो दायकगोचरः॥' [ सूती-बालप्रसाधिका । शौण्डी-मद्यपानलम्पटा । पिशाचवान्-वाताधुपहतः पिशाचगृहीतो वा । पतितः-मर्जागतः । उच्चारः--उच्चारमत्रादीन कृत्वाऽऽगतः । नग्नः-एकवस्त्रो वस्त्रहीनो वा । रक्ता- ६ रुधिरसहिता । लिङ्गिनी-आर्यिका अथवा पञ्चश्रमणिका रक्तपटिकादयः। वान्ता-छदि कृत्वा आगता । अभ्यक्ताङ्गिका-अङ्गाभ्यञ्जनकारिणी अभ्यक्तशरीरा वा । अदन्ती-यत् किंचिद् भक्षयन्ती। निषण्णा-उपविष्टा । नीचोच्चस्था-नीचे उच्चे वा प्रदेशे स्थिता । सान्तरा-कुण्ड्यादिभिर्व्यवहिता। ९ फूत्कारं-सन्धुक्षणम् । ज्वालनं-मुखवातेनान्येन वा अग्निकाष्ठादीनां प्रलेपनं (प्रदीपनं )। सारणंकाष्ठादीनामुत्कर्षणम् । छादनं-भस्मादिना अग्नेः प्रच्छादनम् । विध्यापनं-जलादिना निर्वापणम् । अग्निकार्य-अग्नेरितस्ततः करणम् । निश्च्यावः-काष्ठादिपरित्यागः । घट्टनं-अग्नेरुपरि कुम्भ्यादि- १२ चालनम् । लेपनं-गोमयकर्दमादिना कुड्यादेरुपदेहम । मार्जनं-स्नानादिकं कर्म, 'कृत्वा' इति संबन्धः । शौण्डी रोगीत्यादिषु लिङ्गमतन्त्रम् ॥३४॥ अथ लिप्तदोषमाह यद्गैरिकादिनाऽऽमेन शाकेन सलिलेन वा । आर्द्रण पाणिना देयं तल्लिप्तं भाजनेन वा ॥३॥ गैरिकादिना, आदिशब्दात् खटिकादि विशेषणकरणे वा तृतीया। आमेन-अपक्वेन तण्डुलादिपिष्टेन । १८ उक्तं च 'गेरुयहरिदालेण व सेढीय मणोसिलामपिटेण । - सपवालदगुल्लेण व देयं करभाजणे लित्तं ॥ [ मूलाचार, गा. ४७४ ] ॥३५॥ २१ । नग्न है, मलमूत्र आदि त्यागकर आया है, मूच्छित है, जिसे वमन हुआ है, जिसके खून बहता है, जो वेश्या है, आर्यिका है, तेल मालिश करनेवाली है, अति बाला है, अति वृद्धा है, भोजन करती हुई है, गर्भिणी है, अन्ध है, पर्दे में है, बैठी हुई है, नीचे या ऊँचे प्रदेशपर खड़ी है, ऐसी स्त्री हो या पुरुष उसके हाथसे भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिए । मुँहकी हवासे या पंखेसे अग्निको 'फंकना, अग्निसे लकड़ी जलाना, लकड़ी सरकाना, राखसे अग्निको ढाकना, पानीसे बुझाना, तथा अग्नि सम्बन्धी अन्य भी कार्य करना, लकड़ी छोड़ना, अग्निको खींचना, गोबर लीपना, स्नान आदि करना, दूध पीते हुए बालकको अलग करना, इत्यादि कार्य करते हुए यदि दान देती है या देता है तो दायक दोष है। पिण्डनियुक्ति (गा. ५७२५७७ ) में भी इसी प्रकार ४० दायक दोष बतलाये हैं और प्रत्येकमें क्यों दोष है यह भी स्पष्ट किया है। लिप्त दोषको कहते हैं गेरु, हरताल, खड़िया मिट्टी आदिसे, कच्चे चावल आदिकी पिट्ठीसे, हरे शाकसे, अप्रासुक जलसे लिप्त हाथसे या पात्रसे या दोनों ही से आहारादि दिया जाता है वह लिप्त नामक दोष है ॥३५।। १. लोदणलेवेण व-मूलाचार । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy