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पंचम अध्याय
भुज्यते । यद्वा भित्वा करौ-हस्तपुटं पृथक्कृत्य भुज्यते । यद्वा त्यक्त्वानिष्टं अनभिरुचितमुज्झित्वा इष्टं भुज्यते, तत्पञ्चप्रकारमपि छोटितमित्युच्यते ॥३१॥ अथापरिणतदोषमाह--
तुषचण-तिल-तण्डुल-जलमुष्णजलं च स्वर्णगन्धरसैः ।
अरहितमपरमपीदृशमपरिणतं तन्न मुनिभिरुपयोज्यम् ॥३२॥ तुषेत्यादि-तुषप्रक्षालनं चणकप्रक्षालनं तिलप्रक्षालनं तण्डुलप्रक्षालनं वा यच्चोष्णजलं तप्तं भूत्वा ६ शीतमुदकं स्ववर्णाचरपरित्यक्तमन्यदपीदृशमपरिणतं हरीतकीचूर्णादिना अविध्वस्तं यज्जलं तन्मुनिभिस्त्याज्यमित्यर्थः । तुषजलादीनि परिणतान्येव ग्राह्याणीति भावः । उक्तं च
'तिल-तंडुल-उसणोदय-चणोदय तुसोदयं अविद्धत्थं ।
अण्णं तहाविहं वा अपरिणदं णेव गिण्हिज्जो॥ [ मूलाचार, गा. ४७३] अपि च
'तिलादिजलमुष्णं च तोयमन्यच्च तादृशम् ।
कराद्यताडितं चैव गृहीतव्यं मुमुक्षुभिः ॥' [ ] ॥३२॥ अथ साधारणदोषमाह
यद्दातुं संभ्रमाद्वस्त्राधाकृष्यान्नादि दीयते।
असमीक्ष्य तदादानं दोषः साधारणोऽशने ॥३३॥ संभ्रमात्-संक्षोभाद् भयादादराद्वा । असमीक्ष्य-सभ्यगपर्यालोच्य, अन्नादि । उक्तं च'संभ्रमाहरणं कृत्वाऽऽदातुं पात्रादिवस्तुनः।।
१८ असमीक्ष्यैव यद्देयं दोषः साधारणः स तु ॥' [ ]॥३३॥ अवस्थामें उसे ग्रहण करना २, अथवा मुनिके हाथसे तक्र आदि नीचे गिरता हो तो भी भोजन करना ३, दोनों हथेलियोंको अलग करके भोजन करना ४ और जो न रुचे उसे खाना ये सब छोटित दोष हैं ॥३१॥
अपरिणत दोषको कहते हैं
तुष, चना, तिल और चावलके धोवनका जल, और वह जल जो गर्म होकर ठण्डा हो गया हो, जिसके रूप, रस और गन्धमें परिवर्तन न हुआ हो अर्थात् हरड़के चूर्ण आदिसे जो अपना रूप-रस आदि छोड़कर अन्य रूप-रसवाला न हुआ हो उसको अपरिणत कहते हैं । ऐसा जल मुनियों के उपयोगके योग्य नहीं है ॥३२॥
विशेषार्थ-श्वे. पिण्डनियुक्ति (गा. ६०९ आदि ) में अपरिणतका स्वरूप बतलाते हुए कहा है-जैसे दूध दूधरूपसे भ्रष्ट होकर दधिरूप होनेपर परिणत कहा जाता है, वैसे ही पृथिवी कायादिक भी स्वरूपसे सजीव होनेपर यदि सजीवत्वसे मुक्त नहीं हुए तो अपरिणत कहे जाते हैं और जीवसे मुक्त होनेपर परिणत कहे जाते हैं। अपरिणतके अनेक भेद कहे हैं ॥३२॥
साधारण दोषको कहते हैं
देनेके भावसे, घबराहटसे या भयसे वस्त्र, पात्र आदिको बिना विचारे खींचकर जो अन्न आदि साधुको दिया जाता है उसका ग्रहण करना भोजनका साधारण नामक दोष है ।।३३।।
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