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________________ ३ चतुर्थ अध्याय ३५३ अथ श्लोकद्वयन भाषासमितिलक्षणमाह कर्कशा परुषा कट्वी निष्ठुरा परकोपिनी। . छेदंकरा मध्यकृशातिमानिन्यनयंकरा ॥१६५॥ भूतहिंसाकरी चेति दुर्भाषां दशधा त्यजन् । हितं मितमसंदिग्धं स्याद् भाषासमितो वदन् ॥१६६॥ कर्कशा-संतापजननी 'मूर्खस्त्वं', 'बलीवर्दस्त्वं','न किंचिज्जानासि' इत्यादिका। परुषा-मर्मचालनी ६ त्वमनेकदोषदुष्टोऽसीति । छेदंकरा-छेदकरी वीर्यशीलगुणानां निर्मूलविनाशकरी। अथवा असद्भूतदोषोद्भाविनी। मध्यकृशा-ईदशी निष्ठुरा वाक् या अस्थ्नां मध्यमपि कृशति । अतिमानिनी-आत्मनो महत्त्वख्यापनपरा अन्येषां निन्दापरा च। अनयंकरा-शीलानां खण्डनकरी अन्योन्यसङ्गतानां वा विद्वेष- ९ कारिणी ॥१६५॥ भूतहिंसाकरी-प्राणिनां प्राणवियोगकरी । हितं-स्वपरोपकारकम् ॥१६६॥ बचते हुए, चलना, चोरी और कलहसे दूर रहना इस प्रकारसे गमन करनेवाले यतिके ईर्यासमिति होती है । दशवैकालिक (अ. ५, उ. १, सू ३-४) में कहा है-'आगे युगप्रमाण भूमिको देखता हुआ और बीज, हरियाली, प्राणी, जल तथा सजीव मिट्टीको टालता हुआ चले। दूसरे मार्गके होते हुए गड्ढे, ऊबड़-खाबड़ भूभाग, टूठ और सजल मार्गसे न जावे । पुलके ऊपरसे न जावे ।' दो श्लोकोंसे भाषासमितिका लक्षण कहते हैं ककशा, परुषा, कट्वी, निष्ठुरा, परकोपिनी, छेदंकरा, मध्यकृशा, अतिमानिनी, अनयंकरा और भूतहिंसाकरी इन दस प्रकारकी दुर्भाषाओंको छोड़कर हित, मित और असन्दिग्ध बोलनेवाला साधु भाषासमितिका पालक होता है ।।१६५-१६६।। _ विशेषार्थ -सन्ताप उत्पन्न करनेवाली भाषा कर्कशा है। जैसे तू मूर्ख है, बैल है, कुछ नहीं जानता इत्यादि । मर्मको छेदनेवाली भाषा परुषा है। जैसे, तुम बड़े दुष्ट हो, आदि । उद्वेग पैदा करनेवाली भाषा कट्वी है। जैसे, तू जातिहीन है, अधर्मी है आदि। तुम्हें मार डालूंगा, सिर काट लूँगा इत्यादि भाषा निष्ठुरा है। तू निर्लज्ज है इत्यादि भाषा परकोपिनी है। वीर्य, शील और गुणोंका निर्मूल विनाश करनेवाली अथवा असद्भूत दोषोंका उद्भावन करनेवाली भाषा छेदंकरी है। ऐसी निष्ठुर वाणी जो हड्डियोंके मध्यको भी कृश करती है मध्यकृशा है। अपना महत्त्व और दूसरोंकी निन्दा करनेवाली भाषा अतिमानिनी है। शीलोंका खण्डन करनेवाली तथा परस्परमें मिले हुए व्यक्तियोंके मध्यमें विद्वेष पैदा करनेवाली भाषा अनयंकरा भाषा है। प्राणियोंके प्राणोंका वियोग करनेवाली भाषा भूतहिंसाकरी है । इन दस प्रकारकी दुर्भाषाओंको त्यागकर हित अर्थात् स्वपरके उपकारक, मित अर्थात् १. 'सच्चं असच्चमोसं अलियादीदोसवज्जभणवज्जं । वदमाणस्सणवीची भासासमिदी हवदि सुद्धा' ।।-भग. आरा ११९२ गा.। २. 'पुरओ जुगमायाए पेहमाणो महीं चरे । वज्जितो बीयहरियाई पाणेयदगमट्टि यं ।। ओवायं विसमं खाणं विज्जलं परिवज्जए । संकमण न गच्छिज्जा विज्जमाणे परक्कमे ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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