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धर्मामृत ( अनगार) स्यादीर्यासमितिः श्रुतार्थविदुषो देशान्तरं प्रेप्सतः,
श्रेयःसाधनसिद्धये नियमिनः कामं जनैर्वाहिते। मार्गे कौक्कुटिकस्य भास्करकरस्पृष्टे दिवा गच्छतः,
___ कारुण्येन शनैः पदानि ददतः पातुं प्रयत्याङ्गिनः ॥१६४॥ श्रुतार्थविदुषः-प्रायश्चित्तादिसूत्राथं जानतस्तत्रोपयुक्तस्येत्यर्थः । प्रेप्सतः-प्राप्तुमिच्छतः । श्रेयः६ साधनसिद्धये-श्रेयसः साधनानां सम्यग्दर्शनादीनां तदङ्गानां चापूर्वचैत्यालयसदुपाध्यायधर्माचार्यादीनां सिद्धिः
संप्राप्तिस्तदर्थम् । काम-यथेष्टमत्यर्थं वा । जनैः-लोकाश्वशकटादिभिः । कौक्कुटिकस्य-कुक्कुटी कुक्कुटीपातमात्रं देशं पश्यतः । पुरो युगमात्रदेशप्रेक्षिण इत्यर्थः। प्रयत्या-प्रयत्नेन । उक्तं च
'मंग्गुज्जोउवओगालंबणसुद्धीहिं इरियदो मुणिणो।
सुत्ताणुवीचिभणिया इरियासमिदी पवयणम्हि ॥' [भग. आरा. ११९१ गा.]॥ १६४॥ प्रायश्चित्त आदि शास्त्रोंके अर्थको जाननेवाला जो मुनि आत्मकल्याणके साधन सम्यग्दर्शन आदि और उनके सहायक अपूर्व चैत्यालय, समीचीन उपाध्याय, धर्माचार्य आदिकी प्राप्ति के लिए अपने स्थानसे अन्य स्थानको जाना चाहता है, वह मनुष्य हाथी, घोड़े, गाड़ी आदिके द्वारा अच्छी तरहसे रौंदे हुए और सूर्यकी किरणोंसे स्पृष्ट मार्गमें आगे चार हाथ जमीन देखकर दिनमें गमन करता है तथा दयाभावसे प्राणियोंकी रक्षा करनेके लिए सावधानतापूर्वक धीरे-धीरे पैर रखता है । उस मुनिके ईर्यासमिति होती है ॥१६४।।
विशेषार्थ-भगवती आराधना (गा. ११९१ ) में कहा है-मार्गशुद्धि, उद्योतशुद्धि, उपयोगशद्धि, आलम्बनशद्धि इन चार शद्धियोंके साथ गमन करनेवाले मुनिके सूत्रानुसार ईर्यासमिति आगममें कही है। मार्गमें चींटी आदि त्रस जीवोंका आधिक्य न होना, बीजअंकुर, तृण, हरितवृक्ष, कीचड़ आदिका न होना मार्गशुद्धि है। चन्द्रमा, नक्षत्र आदिका प्रकाश अस्पष्ट होता है और दीपक आदिका प्रकाश अव्यापी होता है । अतः सूर्यका स्पष्ट और व्यापक प्रकाश होना उद्योतशुद्धि है। पैर रखनेके स्थानपर जीवोंकी रक्षाकी भावना होना उपयोगशुद्धि है। गुरु, तीर्थ तथा यतियोंकी वन्दना आदिके लिए या शास्त्रोंके अपूर्व अर्थका ग्रहण करनेके लिए या संयतोंके योग्य क्षेत्रकी खोजके लिए या वैयावत्य करनेके लिए या अनियत आवासके
स्वास्थ्यलाभके लिए या श्रमपर विजय प्राप्त करने के लिए या अनेक देशोंकी भाषा सीखनेके लिए अथवा शिष्यजनोंके प्रतिबोधके लिए गमन करना आलम्बनशुद्धि है। न बहुत जल्दी और न बहुत धीमे चलना, आगे चार हाथ जमीन देखकर चलना, पैर दूर-दूर न रखना, भय और आश्चर्यको त्यागकर चलना, विलासपूर्ण गतिसे न चलना, कूदकर न चलना, भागकर न चलना, दोनों हाथ नीचे लटकाकर चलना, निर्विकार, चपलतारहित, ऊपर तथा इधरउधर देखकर न चलना, तरुण तृण और पत्तोंसे एक हाथ दूर रहकर चलना, पशु-पक्षी और मृगोंको भयभीत न करते हुए चलना, विपरीत योनिमें जानेसे उत्पन्न हुई बाधाको दूर करनेके लिए निरन्तर पीछीसे शरीरका परिमार्जन करते हए चलना, सामनेसे आते हए मनुष्योंसे संघट्टन न करते हुए चलना, दुष्ट गाय, बैल, कुत्ता आदिसे बचते हुए चलना, मार्गमें गिरे हुए भूसा, तुष, कज्जल, भस्म, गीला गोबर, तृणोंके ढेर, जल, पत्थर लकड़ीका टुकड़ा आदिसे १. श्वे. आ. सिद्धसेन गणिकी तत्त्वार्थभाष्यटीका (भा. २, पृ. १८७) में इसीकी संस्कृत छाया उद्धृत है
'उपयोगोद्योतालम्बनमार्गविशुद्धीभिर्यतेश्चरतः । सत्रोदितेन विधिना भवतीर्यासमितिरनवद्या ॥'
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