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धर्मामृत ( अनगार) अथ एषणासमितिलक्षणमाहविध्नाङ्गारादिशङ्काप्रमुखपरिकरैरुद्गमोत्पाददोषैः,
प्रस्मार्य वीरचर्यार्जितममलमधःकर्ममुग भावशुद्धम् । स्वान्यानुग्राहि देहस्थितिपटु विधिवद्दत्तमन्यैश्च भक्त्या,
कालेऽन्नं मात्रयाऽश्नन् समितिमनुषजत्येषणायास्तपोभृत् ॥१६७॥ विघ्नेत्यादि-अन्तरायादयोऽनन्तराध्याये व्याख्यास्यन्ते । प्रस्मार्य-विस्मरणीयमविषयीकृतमित्यर्थः। वीरचर्याजितं-अदोनवृत्त्योपाजितम् । पटु–समर्थम् । विधिवत्-प्रतिग्रहादिविधानेन ।
अन्यैः-ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्रैः स्वदातृगृहाद् वामतस्त्रिषु गृहेषु दक्षिणतश्च त्रिषु वर्तमानैः षड्भिः स्वप्रति९ ग्राहिणा च सप्तमेन । तपोभृत्-इन्द्रियमनसोनियमानुष्ठानं पुष्णन् ॥१६७॥ विवक्षित अर्थके उपयोगी और असन्दिग्ध अर्थात् संशयको उत्पन्न न करनेवाली भाषाको बोलनेवाला मुनि भाषासमितिका पालक होता है ॥१६५-१६६।।
एषणा समितिका लक्षण कहते हैं
भोजनके अन्तरायोंसे, अंगार आदि दोषोंसे, भोज्य वस्तु सम्बन्धी शंका आदि दोषोंसे तथा उद्गम और उत्पादन दोषोंसे रहित, वीरचर्याके द्वारा प्राप्त, पूय, रुधिर आदि दोषोंसे तथा अधःकर्म नामक महान हिंसा दोषसे रहित, भावसे शुद्ध, अपना और परका उपकार करनेवाले शरीरकी स्थितिको बनाये रखने में समर्थ, विधिपूर्वक भक्तिके साथ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और सतशूद्र के द्वारा दिया गया भोजन समयपर उचित प्रमाणमें खानेवाला तपस्वी एषणा समितिका पालक होता है ॥१६७॥
विशेषार्थ-पाँचवें पिण्डैषणा नामक अध्यायके प्रारम्भमें ही कहा है कि साधुको छियालीस दोषोंसे रहित, अधःकर्मसे रहित तथा चौदह मलोंसे रहित निर्विघ्न आहार ग्रहण करना चाहिए । सोलह उद्गम दोष, सोलह उत्पादन दोष, दस शंकित आदि दोष, चार अंगारादि दोष ये सब छियालीस दोष हैं। इनका कथन इसी अध्यायमें आगे आयेगा। एषणा समितिके पालक साधुको इन सब दोषोंको टालकर आहार ग्रहण करना चाहिए तथा वह आहार वीरचर्यासे प्राप्त होना चाहिए। स्वयं भ्रामरी वृत्तिसे श्रावकोंके द्वारकी ओरसे जानेपर जो आहार अदीनवृत्तिसे प्राप्त होता है वही साधुके लिए ग्राह्य है। तथा वह आहार ऐसा होना चाहिए जो साधुके शरीरकी स्थिति बनाये रखने में सहायक हो और साधुका शरीर उसे ग्रहण करके अपना और दूसरोंका कल्याण करने में समर्थ हो। जिस भोजनसे साधुका शरीर विकारग्रस्त होता है, इन्द्रियमद पैदा होता है वह भोजन अग्राह्य है। तथा वह भोजन भक्तिभावसे विधिपूर्वक किसी सद्गृहस्थके द्वारा दिया गया हो वह गृहस्थ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा सत्शूद्र होना चाहिए। सत्शूद्र भी दानका अधिकारी माना गया है। आचार्य सोमदेवने नीतिवाक्यामृतमें जिन शूद्रोंमें पुनर्विवाह नहीं होता उन्हें सत्शूद्र कहा है । यथा-'सकृत्परिणयनव्यवहाराः सच्छूद्राः ।'
तथा लिखा है कि आचारकी निर्दोषता, घर पात्र वगैरहकी शुद्धि तथा शरीर शुद्धिसे शूद्र भी धर्म कर्मके योग्य हो जाता है । जिस घरमें साधुका आहार होता हो उस घरके बायीं ओरके तीन घर और दायीं ओरके तीन घर इस तरह छह घरोंके दाताओंके द्वारा दिया गया १. न लक्षणं तपः पु-भ. कु. च. ।
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