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धर्मामृत (अनगार) अथ कायक्लेशलालनयोर्गुणदोषौ भिक्षोरुपदिशन्नाह
योगाय कायमनुपालयतोऽपि युक्त्या, ___क्लेश्यो ममत्वहतये तव सोऽपि शक्त्या। भिक्षोऽन्यथाक्षसुखजीवितरन्ध्रलाभात्,
तृष्णासरिद विधुरयिष्यति सत्तपोऽद्रिम् ॥१४॥ योगाय-रत्नत्रयप्रणिधानार्थम् । युक्त्या-शास्त्रोक्तनीत्या। सोऽपि-अपिशब्दात् क्रियाया अपि ॥१४॥ अथ प्रतिपन्ननःसंग्यव्रतस्यापि देहस्नेहादात्मक्षतिः स्यादिति शिक्षयतिनैन्थ्यवतमास्थितोऽपि वपुषि स्निह्यन्नसाव्यथा
भी वितवित्तलालसतया पञ्चत्वचेक्रोयितम् । यानादैन्यमुपेत्य विश्वमहितां न्यक्कृत्य देवीं त्रपा,
निर्मानो धनिनिष्ण्यसंघटनयाऽस्पश्यां विधत्ते गिरम ॥१४२॥ पञ्चत्वचेक्रीयितं-लक्षणया मरणतुल्यम् । न्यक्कृत्य-अभिभूय । देवं (-देवीं) महाप्रभावतो त्वातं (-वत्वात्) । तदुक्तम्
'लज्जां गुणोघजननी जननीमिवार्यामत्यन्तशुद्धहृदयामनुवर्तमानाः । तेजस्विनः सुखमसूनपि संत्यजन्ति
सत्यस्थितिव्यसनिनो न पुनः प्रतिज्ञाम् ॥ [ ] निष्ण्यः-अन्त्यजः दयादाक्षिण्यरहितत्वात् । अस्पृश्यां-अनादेयाम् ॥१४२॥ बाह्य परिग्रह है और इन्द्रियोंकी विषयाभिलाषा अन्तरंगपरिग्रह है। उनको त्यागनेपर ही क्षपक परमार्थसे निर्ग्रन्थ होता है ॥१४०॥ ___ आगे साधुको शरीरको कष्ट देने के गुण और उसके लालन-पालनके दोष बतलाते हैं
हे साधु ! रत्नत्रयमें उपयोग लगानेके लिए शरीरकी संयमके अनुकूल रक्षा करते हुए भी तुम्हें ममत्वभावको दूर करनेके लिए अपने बल और वीर्यको न छिपाकर शास्त्रोक्त विधानके अनुसार शरीरका दमन करना चाहिए। यदि तुम ऐसा नहीं करोगे तो इन्द्रिय सुख और जीवनकी आशारूपी छिद्रोंको पाकर तृष्णारूपी नदी समीचीन तपरूपी पर्वतको चूर्ण कर डालेगी ॥१४१।।
विशेषार्थ-यद्यपि रत्नत्रयकी साधनाके लिए शरीर रक्षणीय है किन्तु ऐसा रक्षणीय नहीं है कि संयमका वह घातक हो जाये। अपनी शक्ति और साहसके अनुसार उसका दमन भी करना चाहिए। यदि ऐसा नहीं किया गया तो मुनिका यह शरीर प्रेम धीरे-धीरे विषयोंकी और जीवनकी आशाको बल प्रदान करेगा। उससे बल पाकर तृष्णाकी नदी तपरूपी पर्वतको फोड़कर निकल पड़ेगी और तपका फल संवर और निर्जरा समाप्त हो जायेगा ।।१४१॥
आगे शिक्षा देते हैं कि परिग्रह त्यागरूप व्रतको धारण करके भी शरीरसे स्नेह करनेसे साधुके माहात्म्यकी हानि होती है
सकल परिग्रहके त्यागरूप नैन्थ्यव्रतको स्वीकार करके भी शरीरसे स्नेह करनेवाला साध असह्य परीषहके दःखसे डरकर जीवन और धनकी अत्यन्त लालसासे दसरे मरणके तुल्य माँगनेकी दीनताको स्वीकार करता है। और लज्जा देवीका तिरस्कार करके अपना
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