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चतुर्थ अध्याय -
३२७ अथ बहिःसङ्गेषु देहस्य हेयतमत्वप्रतिपादनार्थमाह
शरीरं धर्मसंयुक्त रक्षितव्यं प्रयत्नतः ।
इत्याप्तवाचस्त्वग्देहस्त्याज्य एवेति तण्डुलः ॥१४०॥ त्वक्-तुषः इष्टसिद्धयनुपयोगित्वात् । त्याज्य एव देहममत्वछेदिन एव परमार्थनिर्ग्रन्थत्वात् ।। तदुक्तम्
'देहो बाहिरगंथो अण्णो अक्खाण विसयअहिलासो।
तेसिं चाए खवओ परमत्थे हवइ णिग्गंथो ॥ [ आरा. सार ३३] ॥१४०॥ भोगोंसे आन्तरिक विरक्ति, वह विरक्ति किसी लौकिक लाभसे प्रेरित या श्मशान वैराग्य जैसी क्षणिक नहीं होनी चाहिए। साथ ही सात तत्त्वोंके सम्यक् परिज्ञानपूर्वक आत्मतत्त्वकी उपलब्धिरूप सम्यग्दृष्टि प्राप्त होनी चाहिए, बिना आत्मज्ञानके घर छोड़कर मुनि बनना उचित नहीं है। अन्तर्दृष्टि इतनी प्रबुद्ध होनी चाहिए कि आत्महित या अहित करनेवाले पदार्थों को तत्काल परखकर हितमें लग सके और अहितसे बच सके । तब घर छोड़े। कमानेया घरेलू परेशानियोंके कारण घर न छोड़े। एक मात्र पापके भयसे घर छोड़े और छोड़कर पछताये नहीं । तथा साधुमार्गके कष्टोंको सहन करने में समर्थ होना चाहिए और मायाचार, मिथ्यात्व और आगामी भोगोंकी भावना नहीं होनी चाहिए। तभी मोक्षमार्गकी आराधना हो सकती है ।।१३९।।
आगे कहते हैं कि बाह्य परिग्रहमें शरीर सबसे अधिक हेय है
'जिस शरीरमें धर्म के साधक जीवका निवास है उस शरीरकी रक्षा बड़े आदरके साथ करनी चाहिए' इस प्रकारकी शिक्षा जिनागमका ऊपरी छिलका है। 'और देह त्यागने ही योग्य है' यह शिक्षा जिनागमका चावल है ॥१४॥
विशेषार्थ-'शरीर धर्मका मुख्य साधन है' यह प्रसिद्ध लोकोक्ति है। इसी आधारपर धर्मसंयुक्त शरीरकी रक्षा करनी चाहिए, यह कथन बालक, वृद्ध, रोगी और थके हुए मनुष्योंकी दृष्टि से किया गया है, क्योंकि बालपन और वृद्धपनका आधार शरीर है। उसके विषयमें प्रवचनसारके चारित्र अधिकारकी ३१वीं गाथाकी टीकामें आचार्य अमृतचन्द्रने उत्सर्ग और अपवादको बतलाते हुए कहा है कि देश-कालका ज्ञाता उत्सर्गमार्गी मुनि बालपन, वृद्धपन, रोग और थकानके कारण आहार-विहारमें मृदु आचरण करनेसे भी थोड़ा पापबन्ध तो होता ही है इस भयसे अत्यन्त कठोर आचरण करके शरीरको नष्ट कर बैठता है और मरकर स्वर्गमें पैदा होकर संयमसे दूर हो जाता है और इस तरह महान् बन्ध करता है। अतः अपवाद निरपेक्ष उत्सर्ग कल्याणकारी नहीं है। इसके विपरीत बालपन, वृद्धपन, रोग
और थकानके कारण अल्प पापबन्धकी परवाह न करके यथेच्छ प्रवृत्ति करनेपर संयमकी विराधना करके असंयमी जनके समान होकर महान् पापबन्ध करता है। अतः उत्सर्ग निरपेक्ष अपवाद भी कल्याणकारी नहीं है । अतः शरीरकी रक्षाका आग्रह इष्ट सिद्धिमें उपयोगी नहीं है इसीलिए उसे जिनागमरूपी तन्दुलका ऊपरी छिलका कहा है। असली तन्दुल है 'शरीर छोड़ने ही योग्य है' यह उपदेश । क्योंकि जो वस्तु बाह्यरूपसे शरीरसे बिलकुल भिन्न है उसके छोड़ने के लिए कहा अवश्य जाता है किन्तु वह तो छूटी हुई है ही। असली बाह्य परिग्रह तो शरीर ही है । उससे भी जो ममत्व नहीं करता वही परमनिर्ग्रन्थ है । कहा भी है-'शरीर ही
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