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चतुर्थ अध्याय
३२१ अथ दैन्यभाषणनिपुणत्वकृपणत्वानवस्थितचित्तत्वदोषावहत्वेन धनानि जुगुप्सते
श्रीमैरेयजुषां पुरश्चटुपटुहोति ही भाषते,
देहीत्युक्तिहतेषु मुञ्चति हहा नास्तीति वाग्घ्रादिनीम् । तीर्थेऽपि व्ययमात्मनो वधमभिप्रैतीति कर्तव्यता
चिन्तां चान्वयते यदभ्यमितधोस्तेभ्यो धनेभ्यो नमः ॥१३१॥ मैरेयं-मद्यम् । हताः-नाशिताः । यल्लोकः
'गतेभंङ्गः स्वरो दीनो गोत्रे स्वेदो विवर्णता।
मरणे यानि चिह्नानि तानि सर्वाणि याचने ॥ [ ] लादिनी-वज्रम् । तीर्थे–धर्मे कार्ये च समवायिनि । व्ययं-द्रव्यविनियोगम् । अन्वयते- ९ अविच्छिन्नं याति । यदभ्यमितधी:--यैरातुरबुद्धिः । नमः-तानि धनानि धिगित्यर्थः ॥१३१॥ परामर्श किया कि भगवानकी वाणीके अनुसार दोनों भाई मोक्षगामी हैं, ये किसीसे मरनेवाले नहीं हैं अतः इन्हीं दोनोंके युद्ध में हार-जीतका फैसला हो, व्यर्थ सेनाका संहार क्यों किया जाये । फलतः दोनों भाइयोंमें जलयुद्ध, मल्लयुद्ध और दृष्टियुद्ध हुआ और तीनों युद्धोंमें चक्रवर्ती हार गये। फलतः उन्होंने रोषमें आकर अपने सहोदर छोटे भाईपर चक्रसे प्रहार किया। किन्तु मुक्तिगामी बाहुबलीका कुछ भी अनिष्ट नहीं हुआ। सबने चक्रवर्तीको ही दुरभिनिवेशी कहा। न्यायमार्गको भूलकर दूसरेका तिरस्कार करनेके भावसे कार्य करनेको दुरभिनिवेश कहते हैं । सम्राट भरत भूमिके लोभमें पड़कर नीतिमार्गको भी भूल गये अतः भूमिका लोभ भी निन्दनीय है ॥१३०॥
धन मनुष्यमें दीनवचन, निर्दयता, कृपणता, अस्थिरचित्तता आदि दोषोंको उत्पन्न करता है अतः धनकी निन्दा करते हैं
जिस धनरूपी रोगसे ग्रस्त मनुष्य लक्ष्मीरूपी मदिराको पीकर मदोन्मत्त हुए धनिकोंके सामने खुशामद करनेमें चतुर बनकर, खेद है कि, 'कुछ दो' ऐसा कहता है। 'कुछ दो' ऐसा कहनेसे ही बेचारा माँगनेवाला मृततुल्य हो जाता है । फिर भी धनका लोभी मनुष्य 'नहीं है। इस प्रकारके वचनरूपी वज्रका प्रहार उसपर करता है। यह कितने कष्टकी बात है। जिस धनरूपी रोगसे ग्रस्त मनुष्य तीथमें भी किये गये धनव्ययको अपना वध मानता है मानो उसके प्राण ही निकल गये। तथा जिस धनरूपी रोगसे ग्रस्त मनुष्य रात-दिन यह चिन्ता करता है कि मुझे यह ऐसे करना चाहिए और यह ऐसे करना चाहिए। उस धनको दूरसे ही नमस्कार है ॥१३॥
विशेषार्थ-धनके लोभसे मनुष्य याचक बनकर धनिकोंके सामने हाथ पसारता है। उस समय उसकी दशा अत्यन्त दयनीय होती है। किसीने कहा है-'उसके पैर डगमगा जाते हैं, स्वरमें दीनता आ जाती है, शरीरसे पसीना छूटने लगता है और अत्यन्त भयभीत हो उठता है । इस तरह मरणके समय जो चिह्न होते हैं वे सब माँगते समय होते हैं। फिर भी धनका लोभी माँगनेवालेको दुत्कार देता है। अधिक क्या, धर्मतीर्थ में दिये गये दानसे भी उसे इतना कष्ट होता है मानो उसके प्राण निकल गये। अपने कर्मचारियोंको वेतन देते हुए भी उसके प्राण सूखते हैं । ऐसा निन्दनीय है यह धन ॥१३१।। १. 'गात्रस्वेदो महद्भयम् ।'-भ. कु. च. ।
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