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धर्मामृत ( अनगार) अथ धनस्यार्जनरक्षणादिना तीव्रदुःखकरत्वात्तत्प्राप्त्युद्यमं कृतिनां निराकुरुतेयत्पृक्तं कथमप्युपायं विधुराद्रक्षन्नरस्त्याजितः,
खे पक्षीव पलं तदथिभिरलं दुःखायते मृत्युवत् । तल्लाभे गुणपुण्डरीकमिहिकावस्कन्दलोभोद्भव
प्रागल्भीपरमाणुतोलितजगत्युत्तिष्ठते कः सुधीः ॥१३२॥ पृक्तं-धनम् । मिहिकावस्कन्दः-तुषारप्रपातः । प्रागल्भी-निरङ्कुशप्रवृत्तिः । उत्तिष्ठतेउद्यमं करोति ॥१३२॥
अथ बहिरात्मनां धनार्जनभोजनोन्मादप्रवृत्तं निःशङ्कपापकरणं स्वेच्छं मैथुनाचरणं दूषयन्नाह
धनका कमाना और रक्षण करना तीव्र दुःखदायक है अतः उसकी प्राप्तिके लिए उद्यम करनेका निषेध करते हैं
जैसे पक्षी आकाशमें किसी भी तरहसे प्राप्त मांसके टुकड़ेकी रक्षा करता है और अन्य पक्षियोंके द्वारा उसके छीन लिये जानेपर बड़ा दुखी होता है, उसी तरह जो धन किसी भी तरह बड़े कष्टसे उपार्जित करके सैकड़ों विनाशोंसे बचाया जानेपर भी यदि धनके इच्छुक . अन्य व्यक्तियोंके द्वारा छुड़ा लिया जाता है तो मरणकी तरह अति दुःखदायक होता है। और उस धनका लाभ होनेपर लोभ कषायका उदय होता है जो सम्यग्दर्शन आदि गुणरूपी श्वेत कमलोंके लिए तुषारपातके समान है। जैसे तुषारपातसे कमल मुरझा जाते हैं वैसे ही लोभ कषायके उदयमें सम्यग्दर्शनादि गुण नष्ट हो जाते हैं, म्लान हो जाते हैं। तथा उस लोभ कषायकी निरंकुश प्रवृत्तिसे मनुष्य इस जगत्को परमाणुके तुल्य तुच्छ समझने लगता है लेकिन उससे भी उसकी तृष्णा नहीं बुझती। ऐसे धनकी प्राप्तिके लिए कौन बुद्धिशाली विवेकी मनुष्य उद्यम करता है, अर्थात् नहीं करता ।१३२।।
विशेषार्थ--धनके बिना जगत्में काम नहीं चलता यह ठीक है। किन्तु इस धनकी तृष्णाके चक्रमें पड़कर मनुष्य धर्म-कर्म भी भुला बैठता है। फिर वह धनका ही क्रीत दास हो जाता है । और आवश्यकता नहीं होनेपर भी धनके संचयमें लगा रहता है। ज्यों-ज्यों धन प्राप्त होता है त्यों-त्यों लोभ बढ़ता जाता है। जैसे अग्नि कभी इंधनसे तृप्त नहीं होती वैसे ही तृष्णा भी धनसे कम नहीं होती, बल्कि और बढ़ती है। कहा भी है-'आशाका गड्ढा कौन भर सकता है। उसमें प्रतिदिन जो डाला जाता है वह आधेय आधार बनता जाता है।' और भी–प्रत्येक प्राणिमें आशाका इतना बड़ा गड्डा है कि उसे भरने के लिए यह जगत् परमाणुके तुल्य है। अतः धनकी आशापर अंकुश लगाना चाहिए ॥१३२।।
बाह्यदृष्टि मनुष्य धनके अर्जन और भोजनके उन्मादमें पड़कर निर्भय होकर पाप करते हैं और स्वच्छन्तापूर्वक मैथुन सेवन करते हैं अतः उनकी निन्दा करते हैं
'कः पूरयति दुष्पूरमाशागत दिने दिने।
यत्रास्तमस्तमाधेयमाधारत्वाय कल्पते ॥ २. आशागर्तः प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणूपमम्-आत्मानुशासन ।
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