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________________ ३२० धर्मामृत ( अनगार) कुप्यं-हेमरूप्यवय॑धातुरथवस्त्रादिद्रव्यम् । यानं-शिविकाविमानादि । भाण्डं-हिंगुं मंजिष्ठादि । काण्डं-समूहः । ताण्डवकर्मकाण्ड:-वैचित्र्यमत्र नेयम् । वैतण्डिक:-उपहासपरः । पुण्यजनेश्वरे३ कुबेरे शिष्टप्रधाने च। मानसोमय:-चित्तविकल्पा दिव्यसरस्तरङ्गाश्च । उत्तराशा-उत्कृष्टाकांक्षा उदीची दिक् च ॥१२८॥ अथ धनगृघ्नोर्महापापप्रवृत्ति प्रवक्ति जन्तून् हन्त्याह मृषा चरति चुरां ग्राम्यधर्ममाद्रियते । खादत्यखाद्यमपि धिक् धनं घनायन् पिवत्यपेयमपि ॥१२९॥ ग्राम्यधर्म-मैथुनम् । धनं-ग्रामसुवर्णादि । धनायन्-अभिकांक्षन् ।।१२९।। अथ भूमिलुब्धस्यापायावद्ये दृष्टान्तेन स्फुटयति तत्तादृगसाम्राज्यश्रियं भजन्नपि महीलवं लिप्सुः । भरतोऽवरजेन जितो दुरभिनिविष्टः सतामिष्टः ॥१३०॥ अवरजेन-बाहुबलिकुमारेण । दुरभिनिविष्टः-नीतिपथमनागतस्य पराभिभवपरिणामेन कार्यस्यारम्भो दुरभिनिवेशस्तमापन्नः ॥१३०॥ विशेषार्थ-जिसके पास उक्त प्रकारकी परिग्रहका अत्यधिक संचय हो जाता है उसका कारभार बहुत बढ़ जाता है और उसीमें वह रात दिन नाचता फिरता है । उसका अहंकार इतना बढ़ जाता है कि वह कुबेरको भी तुच्छ मानता है। कुबेर उत्तर दिशाका स्वामी माना जाता है। उत्तर दिशामें कैलास पर्वतको घेरे हुए मान सरोवर है । जो धनपति कुबेरको भी हीन मानता है, उसे मानसरोवरकी तरंगोंमें जटिल उत्तर दिशा नहीं छोड़ती अर्थात् वह उत्तर दिशा पर भी अधिकार करना चाहता है। इसी प्रकार परिग्रही मनुष्यको भी उत्तराशा-भविष्यकी बड़ी-बड़ी आशाएँ नहीं छोड़ती, रातदिन उन्हींमें डूबा रहता है ॥१२८॥ आगे कहते हैं कि धनका लोभी महापाप करता है धनका लोभी प्राणियोंका घात करता है, झूठ बोलता है, चोरी करता है, मैथुन करता है, न खाने योग्य वस्तुओंको भी खाता है, न पीने योग्य मदिरा आदिको पीता है। अतः धनके लोभीको धिक्कार है ॥२९॥ भूमिके लोभी मनुष्यके दुःखदायी और निन्दनीय कार्योंको दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करते हैं उस प्रसिद्ध लोकोत्तर साम्राज्य लक्ष्मीको भोगते हुए भी भरत चक्रवर्तीने भूमिके एक छोटेसे भाग सुरम्यदेशको लेना चाहा तो उस देशके स्वामी अपने ही छोटे भाई बाहुबलिसे युद्ध में पराजित हुआ और सज्जनोंने उसे भरतका दुरभिनिवेश कहा ॥१३०॥ विशेषार्थ-प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेवके एक सौ पुत्रोंमें चक्रवर्ती भरत सबसे बड़े थे और बाहुबली उनसे छोटे थे। भगवान् जब प्रव्रजित हो गये तो भरत अयोध्याके स्वामी बने और फिर भरतके छह खण्डोंको जीतकर चक्रवर्ती बने। जब वह दिग्विजय करके अयोध्या में प्रवेश करने लगे तो चक्ररत्न रुक गया। निमित्तज्ञानियोंने बताया कि अभी आपके भाई आपका स्वामित्व स्वीकार नहीं करते इसीसे चक्ररत्न रुक गया है। तुरन्त सबके पास दूत भेजे गये । अन्य भाई तो अपने पिता भगवान् ऋषभदेवके पादमूलमें जाकर साधु बन गये। किन्तु बाहुबलिने युद्धका आह्वान किया। विचारशील बड़े पुरुषोंने परस्परमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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