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चतुर्थ अध्याय
अथ क्षेत्रपरिग्रहदोषमाह
क्षेत्र क्षेत्रभृतां क्षेममाक्षेत्रज्यं मृषा न चेत्।
अन्यथा दुर्गतेः पन्था बह्वारम्भानुबन्धनात् ॥१२७॥ क्षेत्रं-सस्याद्युत्पत्तिस्थानम् । क्षेत्रभृतां देहिनाम् । क्षेमम्-ऐहिकसुखसंपादकत्वात् । आक्षेत्रश्यंनैरात्म्यं बौद्धश्चार्वाकैश्च जल्पितम् । अन्यथा-नैरात्म्यं मिथ्या चेद् जीवो यद्यस्तीति भावः ॥१२॥ अथ कुप्यादिपरिग्रहस्यौद्धत्याशानुबन्धनिबन्धनत्वमभिधत्ते
यः कुप्य-धान्य-शयनासन-यान-भाण्ड
काण्डकडम्बरितताण्डवकर्मकाण्डः । वैतण्डिको भवति पुण्यजनेश्वरेऽपि,
तं मानसोमिजटिलोजाति नोत्तराशा ॥१२८।। वास्तव में सांसारिक सुख तो एक भ्रम मात्र है। संसार और सुख ये दोनों एक तरहसे परस्पर विरोधी हैं। कहा है-'प्राणियोंका यह सुख और दुःख केवल वासनामात्र है, जैसे आपत्तिकालमें रोग चित्तमें उद्वेग पैदा करते हैं वैसे ही भोग भी उद्वेग पैदा करनेवाले हैं।' ॥१२६।।
क्षेत्र परिग्रह के दोष बतलाते हैं
यदि बौद्धदर्शनका नैरात्म्यवाद और चार्वाकका मत मिथ्या नहीं है अर्थात् आत्मा और परलोकका अभाव है तब तो प्राणियोंके लिए क्षेत्र (खेत) इस लोक सम्बन्धी सुख देनेवाला होनेसे कल्याणरूप है। और यदि आत्मा और परलोक हैं तो क्षेत्र नरकादि दुर्गतियोंका मार्ग है, क्योंकि बहुत आरम्भकी परम्पराका कारण है ॥१२७॥
विशेषार्थ-क्षेत्रका अर्थ है खेत, जहाँसे अनाज पैदा होता है। किन्तु सांख्य दर्शनमें क्षेत्रका अर्थ शरीर है और क्षेत्रज्ञका अर्थ होता है आत्मा, जो क्षेत्र अर्थात् शरीरको जानता है । तथा 'क्षेत्रभृत्' का अर्थ होता है क्षेत्र अर्थात् शरीरको धारण करनेवाला प्राणी। अतः अक्षेत्रज्ञका अर्थ होता है क्षेत्रज्ञ नहीं अर्थात् आत्माका अभाव या ईषत् क्षेत्रज्ञ । बौद्ध दर्शन नैरात्म्यवादी है । वह आत्माको नहीं मानता और चार्वाक गर्भसे लेकर मरण पयन्त ही मानता है यह बात दृष्टि में रखकर ग्रन्थकार कहते हैं-यदि ये दोनों मत सच्चे हैं तब तो खेत कल्याणकारी है। उसमें अन्नादि उत्पन्न करके लोग जीवन पर्यन्त ज करेंगे और मरने पर जीवनके साथ सब कुछ समाप्त हो जायेगा। पुण्य और पापका कोई प्रश्न ही नहीं। किन्तु यदि ये दोनों हैं तब तो खेती करने में जो छह कायके जीवोंका घात होता है-खेतको जोतने, सींचने, बोने, काटने आदिमें हिंसा होती है उसका फल अवश्य भोगना पड़ेगा। क्योंकि बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह नरकायुके बन्धका कारण है ॥१२७॥
आगे कहते हैं कि कुप्य आदि परिग्रह मनुष्यको उद्धत बनाते हैं और नाना प्रकारकी आशाओंकी परम्पराको जन्म देते हैं
कुप्य-वस्त्रादि द्रव्य, धान्य, शय्या, आसन, सवारी और भाण्ड-हींग आदिके समूहसे नतनपूर्ण क्रिया कलापको अत्यधिक बढ़ानेवाला जो व्यक्ति कुबेर पर भी हँसता है उसे मानसिक विकल्प जालसे उलझी हुई उत्कृष्ट आशा नहीं छोड़ती ॥१२८॥
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