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________________ चतुर्थ अध्याय ३०७ तादात्म्यं–एकत्वम् । श्रुतिवचनयुक्त्या-वेदवाक्ययोजनेन । विवाहकाले हि वैदिकमन्त्रेण स्त्रीपुंसयोरेकत्वं द्विजैरापाद्येत । परधिया-विपक्षबुद्धया ॥१०९॥ __ अथैवं स्त्रीप्रसक्तस्य जनन्यादिपरिभवोत्पादद्वारेण कृतघ्नत्वं प्रकाश्य सांप्रतं मरणेनापि तामनु- ३ गच्छतस्तस्य दुरन्तदुर्गतिदुखोपभोग वक्रवाग्भङ्गया व्यनक्ति चिराय साधारणजन्मदुःखं पश्यन्परं दुःसहमात्मनोऽग्ने । पृथग्जनः कतु मिवेह योग्यां मृत्यानुगच्छत्यपि जीवितेशाम् ॥११०॥ साधारणजन्म-निगोदेषु गुडूचीमूलकादिषत्पादः । योग्य-अन्यासां निगोदे हि एकस्मिन् म्रियमाणे अनन्ता अपि म्रियन्ते । जीवितेशां-वल्लभाम् । पृथग्जनस्य तदायत्तजीवितत्वात् ॥११०॥ अथ भार्यायाः संभोगविप्रलम्भशृङ्गाराभ्यां पुरुषार्थभ्रंशकत्वमुपलम्भयति पिता आदिका भी तिरस्कार करता है कि इन्होंने मेरा कुछ भी नहीं किया, मैं तो अपने पुण्योदयसे ही बना हूँ ॥१०९॥ विशेषार्थ-शरीरमें आत्मबुद्धिकी भावनासे ही शरीरमें राग पैदा होता है और यह राग ही रतिसुखकी उत्कण्ठा पैदा करता है। उसीकी पूर्ति के लिए मनुष्य विवाह करता है । विवाहके समय ब्राह्मण पण्डित वैदिक मन्त्र पढ़कर स्त्री और पुरुषको एक सूत्र में बाँध देते हैं । फिर तो वह स्त्रीमें ऐसा आसक्त होता है कि माता-पिताको भी कुछ नहीं समझता । यह बात तो जन-जनके अनुभवकी है। कौन ऐसा कृतज्ञ है जो स्त्रीकी उपेक्षा करके मातापिताकी बात रखे । घर-घरमें इसीसे कलह होता है। वृद्धावस्थामें माता-पिता कष्ट उठाते हैं और स्त्रीके भयसे पुत्र उनकी उपेक्षा करता है। इसका मूल कारण विषयासक्ति ही है। और इस विषयासक्तिका मूल कारण शरीरमें आत्मबुद्धि है। जबतक यह विपरीत बुद्धि दूर नहीं होती तब तक इस परिग्रहसे छुटकारा नहीं हो सकता ॥१०९।। ___ इस तरह स्त्रीमें आसक्त मनुष्य माता आदिका भी तिरस्कार करके कृतघ्न बनता है यह दिखाकर वचनभंगीके द्वारा यह प्रकट करते हैं कि यह जीव स्त्रीके मरणका भी अनुगमन करके कठिनतासे समाप्त होनेवाले दुर्गतिके दुःखोंको भोगता है मुझे आगे चिरकाल तक साधारण निगोद पर्यायमें जन्म लेनेका उत्कृष्ट दुःसह दुःख भोगना पड़ेगा, यह देखकर स्त्रीमें आसक्त मूढ़ मनुष्य मानो अभ्यास करनेके लिए अपनी प्राणप्यारी स्त्रीका मृत्युमें भी अनुगमन करता है अर्थात् उसके मरनेपर स्वयं भी मर जाता है ॥११०॥ विशेषार्थ-निगोदिया जीवोंको साधारणकाय कहते हैं। क्योंकि उन सबका आहार, श्वासोच्छ्वास, जीवन-मरण एक साथ होता है। स्त्रीमें अत्यन्त आसक्त मोही जीव मरकर साधारण कायमें जन्म ले सकता है। वहाँ उसे अन्य अनन्त जीवोंके साथ ही चिरकाल तक जीना-मरना पड़ेगा। ग्रन्थकार कहते हैं कि उसीके अभ्यासके लिए ही मोही जीव स्त्रीके साथ मरता है ॥११०॥ पत्नी सम्भोग और विप्रलम्भ भंगारके द्वारा मनुष्यको पुरुषार्थसे भ्रष्ट करती है इसका उलाहना देते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001015
Book TitleDharmamrut Anagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshadhar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1977
Total Pages794
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size19 MB
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