________________
३०८
धर्मामृत ( अनगार) प्रक्षोभ्यालोकमात्रादपि रुजति नरं यानुरज्यानुवृत्त्या
प्राणः स्वार्थापकर्ष कृशयति बहुशस्तन्वती विप्रलम्भम् । क्षेपावज्ञाशुगिच्छाविहतिविलपनाथुनमन्तदुनोति,
प्राज्या गन्त्वामिषादामिषमपि कुरुते सापि भार्याऽहहार्या ॥१११॥ प्रक्षोभ्येत्यादि । पुर्वानुरागद्वारेण दुःखापादकत्वोक्तिरियम् । तल्लक्षणं यथा
'स्त्रीपुंसयोनवालोकादेवोल्लसितरागयोः ।
ज्ञेयः पूर्वानुरागोऽयमपूर्णस्पृहयोर्दशा' ॥ [ ] अनुरज्येत्यादि । संभोगमुखेन बाधकत्वधन (?) मिदम् । कामिन्यो हि रहसि यथारुचि कामुकाननु९ वृत्य यथेष्टं चेष्टयन्ति । तदुक्तम्
'यद्यदेव रुरुचे रुचितेभ्यः सुभ्रुवो रहसि तत्तदकुर्वन् ।
आनुकूलिकतया हि नराणामाक्षिपन्ति हृदयानि रमण्यः॥' [ ] स्वार्थापकर्षमादि प्रच्याव्य । विप्रलम्भ-प्रणयभङ्गाप्रभवमानशृङ्गारं प्रवासं च । क्षेपःधिक्कारः । शुक्-शोकः । विलपनं–परिवेर्दै रामस्य यथा
'स्निग्धः श्यामलकान्तिलिप्तवियतो वेल्लद्वलाका घना वाताः शीकरिणः पयोदसुहृदामानन्दकेकाः कलाः । काम सन्तु दृढं कठोरहृदयो रामोऽस्मि सर्वं सहे
वैदेही तु कथं भविष्यति हहा हा देवि धीरा भव ॥' [ काव्यप्रकाश, ११२ श्लो.] अपि च
'हारो नारोपितः कण्ठे स्पर्शविच्छेदभीरुणा। इदानीमन्तरे जाताः पर्वताः सरितो द्रुमाः ॥' [
] जो पत्नी अपने रूपके दर्शन मात्रसे ही मनुष्यके मनको अत्यन्त चंचल करके उसे सन्तप्त करती है, फिर पतिकी इच्छानुसार चलकर, उसे अपने में अनरक्त करके धर्म आदि पुरुषार्थसे डिगाकर उसके बल, आयु, इन्द्रिय आदि प्राणोंको कमजोर बना देती है, तथा तिरस्कार, अनादर, शोक, इष्टघात, रुदन आदिके द्वारा असह्य विप्रलम्भको बढ़ाकर अर्थात् कभी रूठकर, कभी प्रणयकोप करके, कभी पिताके घर जाकर मनुष्यके अन्तःकरणको दुःखी करती है। इस तरह नाना प्रकारके दुःखरूपी राक्षसोंका ग्रास बना देती है। आश्चर्य है कि फिर भी मनुष्य पत्नीको आर्या मानता है। अथवा खेद है कि फिर भी कामी जन पत्नीको हार्या-हृदयको हरनेवाली प्यारी मानते हैं ॥१११।।।
विशेषार्थ-विप्रलम्भ शृंगारके चार भेद कहे हैं-पूर्वानुराग, मान, प्रवास और करुणा। इनमें से पहले-पहलेका तीव्र होता है। अर्थात् सबसे तीव्र पूर्वानुराग है। प्रथम दर्शनसे जो अनुराग होता है वह तीव्र पीड़ाकारक होता है। उसके बाद विवाह होनेपर
१. दंशोः भ. कु. च.। २. कत्वमुक्तम् भ. कु. च.।
- धर्मादिपुरुषार्थात्प्रच्याव्य भ. कु. च.। ४. परिदेवनं भ. कु. च.।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org