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धर्मामृत ( अनगार) प्राग्देहस्वग्रहात्मीकृतनियतिपरीपाकसंपादितैत
देहद्वारेण दारप्रभृतिभिरिमकैश्चामुकैश्चालयाद्यः। लोकः केनापि बारिपि दृढमबहिस्तेन बन्धेन बद्धो
दुःखातश्छेत्तुमिच्छन् निबिडयतितरां यं विषादाम्बुवर्षेः ॥१०८॥ प्रागित्यादि। प्राग्देहे-पूर्वभवशरीरे यः स्वग्रह आत्मेति आत्मीय इति वा निश्चयस्तेन ६ आत्मीकृता स्वीकृता बद्धा या नियति म कर्मविशेषः तस्याः परिपाक उदयः। जीवो हि यादशं भावयति तादृशमेवासादयति । तदुक्तम्
'अविद्वान् पुद्गलद्रव्यं योऽभिनन्दति तस्य तत् ।
न जातु जन्तोः सामीप्यं चतुर्गतिषु मुञ्चति ॥' [ निविडयतितरां-अतिशयेन गाढं करोति । रज्वादिबन्धस्य जलसेचनेनातिगाढीभावदर्शनादेवमुक्तम् ॥१०८॥
अथ षोडशभिः पद्यश्चेतनबहिरङ्गसङ्गदोषान् प्रविभागेन वक्तुकामः पूर्व तावद् गाढरागनिमित्तभूतत्वात्कालत्रयस्य (कलत्रस्य) दोषान् वृत्तपञ्चकेनाचष्टे
वपुस्तादात्म्येक्षामुखरतिसुखोत्कः स्त्रियमरं,
परामप्यारोप्य श्रुतिवचनयुक्त्याऽऽत्मनि जडः। तदुच्छ्वासोच्छ्वासी तदसुखसुखासौख्यसुखभाक्
कृतघ्नो मात्रादीनपि परिभवत्याः परधिया ॥१०९॥ पूर्वजन्ममें इस जीवने शरीरमें 'यह मैं हूँ' या 'यह मेरा है' इस प्रकारका निश्चय करके जो पुद्गलविपाकी नामकर्मा बाँधा था उसीके उदयसे यह शरीर प्राप्त हुआ है। इस शरीरके सम्बन्धसे जो ये स्त्री-पुत्रादि तथा गृह आदि प्राप्त हैं यद्यपि ये सब बाह्य हैं तथापि मूढ़ बुद्धि जन अन्तरंगमें किसी अलौकिक गाढ़े बन्धनसे बद्ध है। जब वह उनके द्वारा पीड़ित होकर, उस बन्धनको काटना चाहता है अर्थात् स्त्री-पुत्रादिकको छोड़ना चाहता है तो विषादरूपी जलकी वर्षासे उस बन्धनको गाढ़ा कर लेता है । अर्थात् देखा जाता है कि पानी डालनेसे रस्सीकी गाँठ और भी दृढ़ हो जाती है। इसी तरह स्त्री-पुत्र आदिके छोड़नेका संकल्प करके भी उनके वियोगकी भावनासे जो दुःख होता है उससे पुनः दुःखदायक असातावेदनीय कर्मका ही बन्ध कर लेता है ॥१०८॥
विशेषार्थ-पूर्वजन्ममें बाँधे गये कर्मके उदयसे शरीर मिला है। शरीरके सम्बन्धसे स्त्री-पुत्रादि प्राप्त हुए हैं । स्त्री, पुत्र, गृह आदि बाह्य हैं। तथापि आश्चर्य यह है कि बाह्य होकर भी अन्तरंगको बाँधते हैं और जब इनसे दुखी होकर इन्हें छोड़ना चाहता है तो उनके वियोगकी कल्पनासे आकुल होकर और भी तीव्र कर्मका बन्ध करता है ॥१०८॥ - आगे सोलह पद्योंसे बाह्य चेतन परिग्रह के दोषोंको कहना चाहते हैं। उनमें से प्रथम पाँच पद्योंसे स्त्रीके दोषोंको कहते हैं क्योंकि स्त्री गाढ़ रागमें निमित्त है
यह मूढ़ प्राणी शरीरके साथ अपना तादात्म्य मानता है। उसका मत है कि शरीर ही मैं हूँ और मैं ही शरीर हूँ। इसी भावनासे प्रेरित होकर वह रतिसुखके लिए उत्कण्ठित होता है और अपनेसे अत्यन्त भिन्न भी स्त्रीको वेद मन्त्रोंके द्वारा अपनेमें स्थापित करके उसके उच्छ्वासके साथ उच्छवास लेता है, उसके सुख में सुख और दुःख में दुःखका अनुभव करता है । खेद है कि वह कृतघ्न अपना विरोधी मानकर अन्य जनोंकी तो बात ही क्या, माता
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