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चतुर्थ अध्याय ते च कर्मबन्धन (निबन्धन) मूर्छानिमित्तत्वात्त्याज्यतयोपदिष्टाः । यदत्राह
'मूmलक्षणकरणात् सुघटा व्याप्तिः परिग्रहत्वस्य । सग्रन्थो मूर्छावान् विनापि किल शेषसंगेभ्यः ।।' 'यद्येवं भवति तदा परिग्रहो न खलु कोऽपि बहिरङ्गः। भवति नितरां यतोऽसौ धत्ते मूर्छानिमित्तत्वम् ॥' 'एवमतिव्याप्तिः स्यात्परिग्रहस्येति चेद् भवेन्नैवम् ।
यस्मादकषायाणां कर्मग्रहणे न मूर्छाऽस्ति ॥' [पुरुषार्थ. ११२-११४ ] अग सङ्गत्यागविधिमाह
परिमुच्य करणगोचरमरीचिकामुज्झिताखिलारम्भः ।
त्याज्यं ग्रन्थमशेषं त्यक्त्वापरनिर्ममः स्वशर्म भजेत् ॥१०६॥ करणगोचरमरीचिकां-करणैश्चक्षरादीन्द्रियैः क्रियमाणा गोचरेषु रूपादिविषयेषु मरीचिका प्रतिनियतवृत्त्यात्मनो मनाक् प्रकाशः । अथवा करणगोचरा इन्द्रियार्था मरीचिका मृगतृष्णेव जलबुद्धया १२
श्वेताम्बर साहित्यमें सिद्धसेन गणिकी तत्त्वार्थटीकामें (७१२) अन्तरंग परिग्रहकी संख्या तो चौदह बतलायी है किन्तु बाह्य परिग्रहको संख्या नहीं लिखी। उनमें से अभ्यन्तर परिग्रहके चौदह भेद हैं-राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यादर्शन, हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा और वेद। बाह्य परिग्रह-वास्तु, क्षेत्र, धन, धान्य, शय्या, आसन, यान, कुप्य, द्विपद, त्रिपद, चतुष्पद और भाण्ड हैं।
अभ्यन्तर परिग्रहमें वेदको एक गिना है और रागद्वेषको मिलाकर १४ संख्या पूरी की है। किन्तु बाह्य परिग्रह अलग गिननेसे १२ होते हैं । इसमें त्रिपद नवीन है जो अन्यत्र नहीं है। वैसे इस परम्परामें ९ बाह्य परिग्रह गिनाये हैं। यथा-धर्म संग्रहकी टीकामें कहा हैधन १, धान्य २, क्षेत्र ३, वास्तु ४, रूप्य ५, सुवर्ण ६, कुप्प ७, द्विपद ८, चतुष्पद ९ ये बाह्य परिग्रह हैं। हेमचन्द्रने भी नौ बाह्य परिग्रह कहे हैं ॥१०५॥
परिग्रहके त्यागकी विधि कहते हैं
मरीचिकाके तुल्य इन्द्रिय विषयोंको त्याग कर समस्त सावध क्रियाओंको भी त्याग दे । तथा छोड़नेके लिए शक्य गृह-गृहिणी आदि समस्त परिग्रहको त्याग कर, जिसका छोड़ना शक्य नहीं है ऐसे शरीर आदिमें 'यह मेरा है' या 'यह मैं हूँ इस प्रकारका संकल्प दूर करके आत्मिक सुखको भोगना चाहिए ॥१०६॥
विशेषार्थ-इन्द्रियोंके विषय मरीचिकाके तुल्य हैं। सूर्यकी किरणोंके रेतमें पड़नेसे वनमें मृगोंको जलका भ्रम होता है उसे मरीचिका कहते हैं। जैसे मृग जल समझकर उसके लिए दौड़ता है वैसे ही लोग सुख मानकर बड़ी उत्सुकतासे इन्द्रियोंके विषयोंकी ओर दौड़ते हैं। अतः वे सर्वप्रथम त्यागने चाहिए । उसके बाद समस्त आरम्भको त्यागकर छोड़ सकने योग्य सभी प्रकारके परिग्रहोंको छोड़ देना चाहिए । बालकी नोकके बराबर भी छोड़ने योग्य
१. धनं धान्यं स्वर्णरूप्यकूप्यानि क्षेत्र वास्तुनी ।
द्विपाच्चतुष्पाच्चेति स्युर्नव बाह्याः परिग्रहाः ।।-योगशास्त्र २।११५ की वृत्ति ।
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